एक ब्राह्मण पंडित, जाने जनेऊ तोरि बुहारी यांची विनंती कियो, जो - महाराज! अब श्रीठाकुरजी पधाई दीजीए । और सेवा को प्रकार कृपा करि कहिए । तत्र श्रीगुसांईजी वा ब्राह्मन के माथे एक लालजो को म्वरूप पधराय दिये । पाछे सेवा को सब रीति सिखाई। ता पाई वह आता मांगि श्रीठाकुरजी कों पधराय अपने घर आयो । सो घर सब न्वासा करि सेवा करन लाग्यो। यार्ता प्रमंग-१ सो वह ब्राह्मन चुकटी मांगि के निर्वाह करतो । पाहें स्नान करि कै रसोई करि कै श्रीठाकुरजी को जगाय मंगला ते सेन पर्यंत की सेवा करतो । सो ऐसें नित्य श्रीठाकुरजी को सेवा करतो । सो एक दिन चुकटी मांगिवे को गयो। सो अवेर भई । सो घर आय के ताप उपज्यो । सो बेगि वेगि न्हाय के मंदिर में वुहारी करत हतो । सो बुहारी की जेवरी टूटि गई । सो जनेऊ तोरि कै वुहारी उतावलि सों बांधी। सो जनेऊ की कछु सुधि रही नाहीं। पाछे श्रीठाकुरजी कों जगावन गयो । तव श्रीठाकुरजी प्रसन्न भए। तब याने विनती कीनी, जो - महाराज ! आप प्रसन्न भए ताकी कारन कहा ? तव श्रीठाकुरजी आपने आज्ञा करी. जो - आज ते जनेऊ तोरि कै वुहारी वांधी । सो ऐसी आतुरता में मोकों जगायो को आयो । तासों में प्रसन्न भयो हो। तब ते ऐसें ही नित्य श्रीठाकुरजी सानुभवता जनावन लागे । जो-चहिए सो मांगि लेते । सो यह ब्राह्मन ऐसेई सदा सर्वदा आतुरता पूर्वक मेवा करतो। -या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो- पुष्टिमार्ग की मेगा विरह-भातुरता की है। विग्ह-आतुरता विना अनुभव न होई । कान ? विरह आतुरता करि लोक वेद के धर्म विस्मृत होत है। देहानुसंधान टू सदन । तब प्रभु को आवेस हृदय में होता है। नाने मत्र रम को अनुभव होता है। भावप्रकाग-
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