८८ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता की सुफेदी लेकै आए । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी आप उहां वैष्णव के पास पधारे। सो वाकों महाप्रसाद लिवाइ, जल पिवाइ वह सुफेदी वाकों उढाय कै आप तो अपने मंदिर में पधारे । सो उह वैष्णव तो यह कछु जाने नाहीं। ता पाछे श्रीगोवर्द्धन- नाथजी यह सब समाचार श्रीगुसांईजी सों कहे, जो - ऐसी भई है । जो - वह दुर्वल वैष्णव, सो मेरो स्नेह वाके हृदय में वोहोत है । सो वा आयो न गयो। सो ये सातों वैष्णव वाको उहां घाटे ही पै अकेलो छोरि आए हैं। सो वह भूखो उहांई परि रह्यो है। सो तव रात्रि को मैं या भांति सों वाको महाप्रसाद जल और ओढिवे को अपनी सुफेदी दे आयो हूं। सो इनकों तुम समुझाप दीजो। जो वाकों ऐसें न छोरयो करें। और अब तुम वाकों बुलाय लेउ । ऐसे सुनि कै श्रीगुसांईजी आप पधारे । सो सातों वैष्णवन सों खीझन लागे । जो-साथ में रहि कै गरीव की खवरि नाहीं राखत ? तब वे सातों जने वाकों अपने साथ जाँइ के ले आए। ता दिन तें ए सातों वैष्णव ताकी खबरि राखन लागे । वाकों अकेलो न छोरे । सो वा वैष्णव के ऊपर श्रीगोवर्द्धननाथजी ऐसी कृपा करते। भावप्रकाश-यामें यह जताए, जो - वैष्णव को जीव मात्र राखनी। सो वह वैष्णव श्रीगुसांईजी को ऐसा कृपापात्र भगवदीय हतो।तातें उनकी वार्ता कौ पार नाहीं सो कहां तांई कहिए ? वार्ता ॥१०॥ an दया
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