पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१३

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और इस प्रकार के महाविरे हिंदी और उर्दू में एक सा ही होना चाहिए।" (पं० पद्मसिंह शर्मा के पत्र सं०८ से उद्धृत)। शर्मा जी के व्याकरण संबंधी विचार अन्य कई पत्रों में भी मिलेंगे। एक स्थान पर "ऐश्वरीय" शब्द की अशुद्धता पर संकेत किया गया है तथा संस्कृत व्याकरण के दूसरी भाषा के शब्द में हिंदी वर्तनी के प्रयोग का भी विरोध किया है। ____ "एक स्थान पर “ऐश्वरीय" शब्द है। वहां “ईश्वरीय" चाहिए, क्योंकि 'छ' प्रत्यय होने पर वृद्धि नहीं होती। यथा-स्वर्गीय, देवदत्तीय इत्यादि । तीसरा शब्द' अनुग्रहीत है, वह अनुगृहीत होना चाहिए बस । एक प्रार्थना और है। इस निबंध में किसी स्थान पर इस विषय पर और लिख दीजिए कि बहुत से लेखक संस्कृत व्याकरण के अनुसार दूसरी भाषा के शब्दों में भी परसवर्ण, षत्व तथा णत्व का विधान करते हैं, जो अनुचित है। यथा-"अन्जुमन्" की जगह 'अजुमन्' इन्जील की जगह 'इजील' आदि लिखते हैं। 'पोस्ट- मास्टर' के स्थान में "पोप्टमास्टर' और 'गवर्नमेंट' की जगह गवर्णमेण्ट आदि लिखते है; जो सर्वथा अशुद्ध होता है।" (पं० पद्मसिंह शर्मा के पत्र सं० ९ से उद्धृत)। पं० पद्मसिंह शर्मा के प्रत्येक पत्र में प्रसंगोपयुक्त संस्कृत फारसी और उर्दू की सूक्तियां उद्धृत मिलेगी। एक स्थान पर 'सरस्वती' में छपी हुई कविताओं को भद्दी बताने वालों के विषय में वे लिखते हैं- __'सरस्वती' की कविता कौन से नागरी वाले भद्दी बताते हैं ? आरा के या बनारस के ? उन बेचारों का भी कुछ दोष नहीं, किसी ने सच कहा है- विपुल हृदयाभियोग्ये खिद्यति काव्ये जडो न मौख्ये स्वे। निंदति कंचुककारं प्रायः शुष्कस्तनी नारी॥ (सो नागरी सभा भी शुष्कस्तनी है-) (पं० पद्मसिंह शर्मा के पत्र सं० २९ से उद्धृत)। इन सूक्तियों में कई स्थानों पर वे समानान्तर सूक्तियां भी उद्धृत करते हैं। इन पत्र संग्रह के कई पत्रों में एक साथ संस्कृत तथा फारसी-उर्दू की समान भाववाची . सूक्तियां उद्धृत हैं। उदाहरण के लिये एक स्थान पर नैषधीय चरित्र में उर्दू के शायर सौदा के एक शेर के भावसाम्य का संकेत करते हुए उन्होंने लिखा है- "विलम्बसे जीवित! किं तवद्रुतं ज्वलत्पदस्ते हृदयं निकेतनम्। जहासिनाद्यापि मृषासुखासिकामपूर्वमालस्यमिदं तवेदृशम् ॥"