१३४ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र गया, जिसमें ४५ हजार से ऊपर नकद था। बा० गंगाप्रसाद एम० ए० डिप्टी कलेक्टर का व्याख्यान आर्यों और पारसियों की प्राचीनता और समानता पर अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण और रोचक हुआ, यह व्याख्यान कोई ३ घन्टे तक हुआ, व्याख्याता इस प्रान्त के प्रसिद्ध वक्ता और विद्वान् पुरुष हैं। ___'सरस्वती' की अबके तीन बातें हमें बहुत पसन्द आई, एक तो शुरू का चित्र और उस पर आपका नोट । 'चितइ जानकी लषन तन' में 'चितई' का कर्ता कौन है 'करुणाऐन' या 'जानकी' ? दूसरी उर्दू वर्णमाला पर आपकी समालोचना। तीसरी शंकर जी की कविता। सच तो यह है कि आपकी लेखनी आलोचना खूब लिखना जानती है। गुरुकूल में दो एक मित्र (जो आपके लेख बड़े शौक से पढ़ा करते हैं) उपालम्भ देते थे कि न जाने द्विवेदी जी की लेखनी अब समालोचना लिखने में क्यों शिथिल होती जाती है ? एक महोदय इस बात की विशेष रूप से शिकायत करते थे कि 'भगत्सुधाशतक' की समालोचना करते हुए उसे स्तुतिकुसुमांजलि' के बराबर रखकर द्विवेदी जी ने अपनी लेखनी, स्वभाव और सहृदयता के प्रतिकूल काम किया। अस्तु, ये बातें आपके सम्बन्ध में थीं इसलिए आप तक पहुँचा दी। 'मुग्धानलाचार्य' का कार्ड पढ़कर लोग खूब हँसते थे। ऐसे मुग्धाचार्य क्या खाक संस्कृत साहित्य पढ़ाते होंगे? वि० दे० च० के प्रकाशक बुलर साहब भी ऐसे ही संस्कृतज्ञ मालूम होते हैं, जिन्होंने- "भोजःक्ष्माभृत्स खलु न खलस्तस्य साम्यं नरेन्द्रस्तत्प्रत्यक्ष किमितिभवता नागतं हाहतास्मि। यस्य द्वारोड्डमरशिखरकोडपारावतानां, नादव्याजादिति सकरुणंव्याजहारेव धारा।" इस श्लोक के होते हुए भी भूमिका में यह लिख दिया कि बिल्हण धारा में नहीं गया! निःसन्देह आपने भी भूमिका से ही चर्चा में ऐसा लिख दिया है, अन्यथा इस श्लोक के सामने आपका लिखा यह नोट है"धारा गया" बुलर की नीरस भूमिका ने ही चर्चा को वैसा सुन्दर नहीं बनने दिया जैसा आशा थी। उसका आश्रय आपने लिया ही क्यों? . "मसन्नफीन' में किसी का चरित नहीं यह सुनकर ताज्जुब हुआ, उसके नोटिस में तो यह स्पष्ट लिखा है- "हिन्दोस्तान के जिंदः मुसन्नफीन उर्दू जबान की सवानह उमरी अंग्रेजी जबान में लिखी है और हर एक मुसनिफ के हालात निहायत तदकीक से जमअ किये हैं।" . • लोग बड़ा झूठ लिखते हैं, क्या किया जाय। इकबाल की किताब क्लिष्ट है, इस दशा में व्यर्थ दाम गये, अफसोस।
पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१४८
दिखावट