पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२११

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पं० श्रीधर पाठक जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १९७ २. जब वह चीखा (तब) मैं चौंक पड़ा। यहाँ "तब" बे मुहाविरा है- "तो" होना चाहिए। प्रायः “तब" (प्रचार के अनुसार) जब के बाद छोड़ दिया जाता है परन्तु अब उसके निरन्तर वा निर्विकल्प व्यवहार की परिपाटी पड़ती जाती है- ३. जहां “यह", "इन" काफी हैं, वहां “यही", "इन्ही" लिखना [बल्कि "इनही" (इन्हीं के स्थान में)]- ४. 'पूर्णरूप से', 'पूरे रूप से' वा 'पूरी रीति पर" के स्थान में 'पूर्णतया- ५. “कृपा करके" के स्थान में "कृपया"- ६. 'ही' और 'भी' का निरर्थक बाहुल्यता से व्यवहार- इस प्रकार की अनेक बातें हैं जो अपने को अच्छी नहीं लगतीं-मेरी अल्प- बुद्धि में ये सब रोचकता की बाधक हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि जब यह नई रीति प्रचार पाकर पुरानी हो जायगी यही मुहाविरा हो जायगी और रुचने लगेगी पर पुराने मु० के बदलने से लाभ क्या? इस व्यर्थ उलट पलट से कौन बड़ा प्रयोजन सिद्ध होगा? जो लोग सैकड़ों बरसों के व्यवहार से बने हुए मुहाविरों को बोलते, सुनते और लिखते पढ़ते रहे हैं उन्को इस नूतन रीति से व्यवहृत शब्द अवश्य खटकते हैं। निबन्ध लिखने को यहां न अवकाश है, न इधर अधिक रुचि है, पर मित्रों को जबतब सुझा देना, अपनी प्रकृति और धर्म के अनुकूल है-अतएव आपको कष्ट दिया गया। निश्छल तुम्हारा श्रीधर पाठक नोट-इस पत्र में पूर्णविराम के स्थान में हायफन (-)दिया गयाहै। 'उन्का' आदि प्रयोग भी द्रष्टव्य है। वर्तनी की दृष्टि से भी यह पत्र ऐतिहासिक महत्व का है।