पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२८

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द्विवेदी जी के पत्र 'जनसोदन' जी के नाम ९-९-०४ जुही, कानपुर प्रियवर कृपापत्र आया। हमारे लिए आपको अभ्यर्थना की. जरा भी जरूरत नहीं थी। जरूरत है प्रेम-पूजा की। उसी से आप हमको कृतकृत्य करते रहिए। श्रीमान राजा कमलानन्द सिंह जी जो हिंदी के सुलेखकों को साहाय्य देना अपना कर्त्तव्य समझते हैं सो उनकी उदारता और कृपा है। श्रीमान होकर भी जिसने अपनी मातृभाषा-निःसहाय हिंदी पर दया-दृष्टि न की उसकी श्री की शोभा ही क्या? हमारी आन्तरिक इच्छा रहती है कि हम अपने इष्टमित्र और कृपालु सज्जनों को अपना स्मरण पत्र द्वारा कराया करें। परन्तु राजा साहब को हम बार- बार अकारण पत्र भेजकर उनके काम में विघ्न नहीं डालना चाहते। ____यांचा बहुत बुरी वस्तु है। जब तक हाथ-पैर चलता है, हम इससे बचना चाहते हैं। त्यजन्त्यसून् शर्म न मानिनो वरं त्यजन्ति न त्वेकमयाचितव्रतम् । जिनका हम पर प्रेम अथवा कृपा है उनसे इसके विपरीत व्रत का व्यवहार करने से डर लगता है कि कहीं वह कृपा भी उनकी हवा न हो जाय। श्रीमान् समर्थ हैं। अगर वे 'सरस्वती' के लिए कुछ भी पूजा सामग्री भेजेंगे तो वह उन्हें स्वीकार करेगी और यथोचित रीति पर उसकी सूचना भी छाप देगी। हम अपने क्षुद्र जीवन के लिए उनको कष्ट नहीं देना चाहते। हमारी सब पुस्तकें अनेक बक्सों में बंद पड़ी हैं। यहां वर्ष दो वर्ष रहने का विचार है। मकान तलाश कर रहे हैं। मिल जाने पर आपको लिखेंगे। अभी हमको यह भी नहीं याद कि रामचरितेन्दुप्रकाश हमको मिला है या नहीं और हमने उसकी समा- लोचना लिख ली है या नहीं। ईश्वर करे, आप सदैव प्रसन्न और स्वास्थ्यसंपन्न रहें। भवदीय महावीरप्रसाद द्विवेदी