पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/३४

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द्विवेदी जी के पत्र 'जनसीदन' जी के नाम हमारे हृत्पटल में अंकित हैं, पर अब वे हमारी आंखों को भी मूर्तिमान दिखाई देंगे-इस दयादृष्टि में इतनी विशेषता है। श्रीमान नीरोग रहै और चिरायु हों, यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है। भवदीय महावीरप्रसाद द्विवेदी (२१) कानपुर ३-४-०६ प्रिय पंडित जी कृपापत्र आया। मशीन भी आ गई। दूसरा पत्र पढ़ लीजिए और यदि जरूरत हो तो श्रीमान को भी सुना दीजिए। हम आपके बहुत कृतज्ञ हैं। आपको धन्य- वाद दें तो क्या और न दें तो क्या, धन्यवाद एक कोरी नाचीज़ चीज़ है। बात यह है कि हम एक क्या दो मशीन ले सकते हैं पर आपने तो यह अयाचित कृपा हमपर दिखलाई। उसे ग्रहण करने से हमको एक प्रकार की ग्लानि हुई कि जो वस्तु हम स्वयं लेने को समर्थ है उसके लिए मित्रों को कष्ट क्यों हमने दिया। अस्तु, मामला निर्विघ्न समाप्ति को पहुंच गया। इसका पक्ष अकेले आप ही को है। आपके पत्र को पढ़कर हमे बेहद रंज हुआ। सच तो यह है कि सेवा वास्तव में बहुत ही निन्द्य है। हमने तो कोई २३ वर्ष इस वृत्ति में काटे। आपको तो शायद अभी इतने दिन न हुए हों। इससे यदि और कोई आपका जरिया जीविका का न हो तो जहां तक हो सके बने रहिए और श्रीमान् की शुभकामना करते रहिए और यथासाध्य सदुपदेश भी देते रहिए। आपकी कविता का गंभीर भाव अब हमारी समझ में आया। आशा है श्रीमान ने भी उसका गूढाशय समझ लिया होगा। रियासतों की हालत बड़ी खराब हो रही है। जिनके पास पृथ्वी है वे आलसी हो रहे हैं। उनसे उसका प्रबंध नहीं बन पड़ता। पर जिनमें वह शक्ति है उनके पास डब्बल भर भी जमीन नहीं। ईश्वर की गति तो देखिए। यदि हमारे प्रभु अंगरेज आप ही इस देश को छोड़ कर इंग्लैंड जाने लग और जहाज पर सवार हो जायं तो हमको विश्वास है कि हम अकर्मण्य हिन्दुस्ता- नियों को एडन को तार भेजना पड़े कि आप लौट आइए, हम पर चाहै जैसा शासन