श्री भारतीय जी के नाम (१) दौलतपुर, रायबरेली ९-३-१९३६ श्रीमत्सु सादरं निवेदनम् ६ मार्च की चिट्ठी मिली, दो पुस्तकें भी। कृतज्ञ हुआ। आप मेरे मित्र बाबू जगन्मोहन जी वर्मा के पुत्र हैं, यह जानकर मुझे बड़ी खुशी हुई। मराठी की एक कहावत है 'बाप से बेटा सवाया'। यह आपमें पूर्णता से भी अत्यधिक चरितार्थ होती है । वर्धस्व, भगवान आपको चिरंजीवी और यशस्वी करें। ____ मैंने नाटक का कुछ अंश और दो एक कहानियां पढ़ कर सुनीं। बड़ा मनोरंजन हुआ। पुस्तकों का रूप रंग जैसा आकर्षक है, भीतरी सामग्री वैसी ही सरस और मोहक है। धन्योऽसि। तीस वर्ष पहले हिंदी के साहित्य की जो दशा थी उसमें और आजकल की दशा में आकाश पाताल का अंतर है। मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मेरे जीते अपना साहित्य इतना उन्नति कर सकेगा। कितने ही पत्र पत्रिकाएँ और महत्व की पुस्तकें नई नई निकल रही है। यह सब आप ही के सदृश्य प्रयत्नशील और हिंदी प्रेमी विद्वानों के उद्योग का फल है। मेरा दिमाग खाली है। दृष्टि मंद है। पांच मिनट भी कुछ सोचने से सिर चक्कर खाने लगता है। इस दशा में उपदेश तो क्या साधारण सूचनाएँ भी देने लायक नहीं। इलाहाबाद जाने की जरूरत हुई तो आप से मिलंगा। 'लेखक'-आपकी कृपा से मिलता है। आपका यह आयोजन बड़े काम का है। यह विषय ही कोई नई चीज है। उससे अनेक लाभ होने की संभावना है। २००) महीने की मुलाजिमत छोड़कर मैंने २३) महीने पर सरस्वती का काम शुरू किया था। सचाई, श्रम, उद्योग और निस्पृहता की बदौलत वह चल गया। मुख्य आकर्षण अपनी भाषा से प्रेम था। उस प्रेम की बदौलत जो कुछ धन खर्च से बचा वह भी मैंने हिंदी की उन्नति के लिए ही दे डाला। यह खानगी बात के लिखने का आशय केवल इतना ही है कि निस्पृहता और स्वाभाविक प्रेम साहित्य की उन्नति में विशेष सहायक होते हैं। कृपापात्र महावीरप्रसाद द्विवेदी
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