द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र "उष्ट्राणां विवाहे हि गर्दभा गीत गायकाः। परस्परं प्रशंसन्ति अहोरूपमहोध्वनिः॥" कमेटी के सब मेम्बर ला देवराज जी के मित्र हैं। वे उनकी हां में हो मिलाना ही अपना औचित्य समझते हैं। इसके अतिरिक्त एक आध को छोड़कर कोई मेम्बर हिन्दी नहीं जानता। फिर उनसे क्या आशा की जा सकती है। ला० मुंशीराम जी ने पुस्तकों की भ्रष्टता पर कमेटी का ध्यान कई बार दिलाया। परन्तु कोई नतीजा न निकला। पण्डित जी! आपकी आलोचना व्यर्थ नहीं जायगी। वह अपना काम करके रहेगी। आपकी आलोचना-हृदयग्राहिणी आलोचना, पबलिक के दिल हिलाकर छोड़ेगी, और फिर पबलिक लालाजी को मजबूर करेगी कि वह इन पुस्तकों को उठा लें। जिन लोगों की सहायता पर विद्या- लय के अस्तित्व निर्भर हैं, जिनकी पुत्रियां और स्त्रियां इसमें पढ़ती हैं, उन्हें यह बात स्पष्टतया मालूम होनी चाहिये कि विद्यालय में कैसी पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं, फिर वे लोग लाला जी का ध्यान इस ओर जरूर दिलायेंगे। यदि समालोचना के छपाने आदि के बखेड़े से आप बचना चाहें तो ला० मुंशी- राम अपने प्रेस में छपाने को उद्यत हैं। बल्कि यही उचित भी होगा। उनकी तरफ से ही समालोचना का प्रचार होना अधिक लाभदायक होगा। विद्यालय के अधि- कारियों(आपकी समालोचना के निकलने पर) ने यदि इन पुस्तकों को न भी उठाया तो और जिन पचासों पुत्री पाठशालाओं में इनका रिवाज है वहाँ से तो उठ जायंगी, यह क्या थोड़ा लाभ है ? .. आपकी कविताओं को उद्धृत करके जहाँ कहीं (संरस्वती) यह लिख भी दिया है, उसमें भी एक उस्तादी है। विद्यालय की एक छात्रा है, जिसका नाम 'सरस्वती' है। उसके नाम से प्रायः लेख 'पांचाल पण्डिता' में निकला करते हैं। बस, पढ़नेवाले समझें कि यह भी उसी सरस्वती की कविता है ! ! खूब! . मैंने अपने एक मित्र के पास जो व्याकरण, वेदान्त, न्याय और साहित्य के अच्छे पण्डित हैं। आपकी 'काव्यमंजूषा', 'कालिदास-समालोचना' आदि पुस्तकें भेजी थीं। वे उन्हें पढ़कर इतने प्रसन्न हुए कि आपके साथ २ मुझे सैकड़ों धन्यवाद दे डाले। आपके विषय में उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह लिखता हूँ- "आलोक्य तत्पुस्तकजातमद्य जातं च मे हर्षभरं च चित्तम्। नाहं प्रशस्ति प्रभवामिकतुं श्री ग्रन्थकर्तुवसत्यमेतत् ॥" श्रीमत्कृपावापित पुस्तकानि दृष्ट्वा निसर्गान्मम निःसरन्ति। श्लोका इमे मद्वदनात्तदेतत्सत्यं वदामीतिविनिश्चितुत्वम्॥".
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