पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१०

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ई के अन्तिम दिन। दिल्ली जैसे भाड़ में भुनी जा रही थी। पंखा आग के थपेड़े मार रहा था। डाक्टर अमृतराय ने अपने अन्तिम रोगी को बेबाक किया और कुर्सी छोड़ी। परन्तु इसी समय एक कार डिस्पेन्सरी के सामने आकर रुकी। डाक्टर ने घड़ी की ओर नज़र घुमाई, एक बज रहा था। उसकी भृकुटी में बल पड़ गए―भुनभुनाकर उसने कहा, 'नहीं, इस समय अब और कोई मरीज़ नहीं देखा जाएगा।' परन्तु उसने देखा―एक भद्र बूढ़ा मुसलमान कार से उतरकर हाथ की कीमती छड़ी के सहारे धीरे-धीरे डिस्पेन्सरी की सीढ़ियों पर चढ़ रहा है।

कार निहायत कीमती और नई थी। वृद्ध की आयु अस्सी के ऊपर होगी। लम्बा, छरहरा और कभी का सुन्दर कमनीय शरीर सूखकर झुर्रियों से भर गया था। कमर झुक गई थी। और अब, जैसे वृद्ध की दोनों टाँगें उसके शरीर के भार को उठाने में असमर्थ हो रही थीं, इसी से वह एक कीमती नाजुक मलक्का छड़ी के सहारे आगे बढ़ रहा था। बदन पर महीन तनज़ेब का चिकनदार कुर्ता, और उस पर अतलस की अद्धी। सिर पर डेढ़ माशे की लखनवी दुपल्ली टोपी, पुराने फैशन के कटे बाल, ढीला पायजामा और वसली के सलीमशाही जूते। वृद्ध का उज्ज्वल गौर वर्ण उसकी बगुले के पर जैसी सफ़ेद दाढ़ी-मूंछों से स्पद्धो-सा कर रहा था। बड़ी-बड़ी आँखों में लाल डोरे उसके अतीत रुआबदार जीवन की साक्षी दे रहे थे। उन्नत ललाट और उभरी हुई नाक तथा पतले सम्पुटित होंठ उसके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना रहे थे।

वृद्ध ने भीतर आकर मुस्लिम तरीके से दोनों हाथ बढ़ाकर डाक्टर के हाथ अपने हाथों में लेकर अभिवादन किया। फिर कुछ काँपती-सी धीमी आवाज़ में कहा, 'मुआफ कीजिए, मैंने बेवक्त आपको तकलीफ दी। ओफ, किस शिद्दत की गर्मी है, आग बरस रही है। यह आपके आराम करने का वक्त है, लेकिन मैं भीड़ से बचने और तख्लिये में आपसे मिलने की खातिर ही देर से आया।' इतना कहकर जेब से पर्स निकाला और बत्तीस रुपयों के नोट टेबल पर आहिस्ता से रखकर वह डाक्टर के मुँह की ओर देखने लगा।

नकद फीस को देख तथा वृद्ध के अस्तित्व से प्रभावित होकर डाक्टर ने नम्रतापूर्वक कहा, 'कोई बात नहीं। मुझे तो रोज़ ही इस वक्त तक बैठना पड़ता है। फरमाइए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ! लेकिन, आप कृपा कर बैठिए तो।'

'अब इस वक्त नहीं, फिर कभी, जब आपको फुर्सत हो। जबकि हम लोग इत्मीनान से बातें कर सकें।

'तो कल, इसी वक्त।'