'बेहतर, लेकिन इस गर्मी में तो मेरी जान ही निकल जाएगी।' बूढ़ा भुनभुनाया। और उसी तरह डाक्टर के हाथों को अपने हाथ में लेकर उन्हें आँखों से लगाया और कहा, 'खुदा हाफिज़।'
वह चल दिया। डाक्टर ने बाहर आकर उसे सादर विदा किया। कार के जाने पर डाक्टर बड़ी देर तक उसी की बात सोचता रहा—अवश्य ही यह बूढ़ा सनकी रईस किसी रहस्य से सम्बन्धित है।
2
दूसरे दिन ठीक समय पर बूढ़ा आ पहुँचा। इस समय कार की खिड़कियों में दुहरे शीशे जड़े थे और भीतर गहरे आसमानी साटन के पर्दे लगे थे। डाक्टर बूढ़े के अभिप्राय को कुछ-कुछ समझ गया था और उसने पहले से ही यहाँ एकान्त की सब सम्भव व्यवस्था कर रखी थी।
डिस्पेन्सरी में आकर बूढ़े ने उसी भाँति मुस्लिम पद्धति से डाक्टर का अभिवादन किया; एक बार डिस्पेन्सरी पर सतर्क दृष्टि डाली और बत्तीस रुपए मेज़ पर रखकर कहा,
“क्या यहाँ हम इत्मीनान से बातें कर सकते हैं?'
'यकीनन', डाक्टर ने जवाब दिया।
'तो मैं उसे बुलाऊँ?' उसने साभिप्राय दृष्टि से डाक्टर की ओर देखा।
डाक्टर की आँखें कार की नीले साटन से ढकी हुई खिड़कियों की ओर उठ गईं। उसने आहिस्ता से कहा, 'जैसा आप मुनासिब समझें।'
बूढ़ा उसी भाँति छड़ी टेकता हुआ कार तक गया। कार का दरवाज़ा खुला और कीमती काली सिल्क का बुर्का ओढ़े हुए एक किशोरी ने हाथ बढ़ाकर अपनी चम्पे की कली के समान कोमल उँगलियों से बूढ़े का हाथ पकड़ लिया। हाथ का सहारा लेकर वह नीचे उतरी और धीरे-धीरे लाल मखमल के जूतों से सुशोभित उसके चरण आगे बढ़कर डिस्पेन्सरी की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे।
बाला का सर्वांग बुर्के से ढका था। केवल उन मखमली जूतों के बाहर उसके उज्ज्वल चरणों का जो भाग खुला दिख पड़ता था तथा चम्पे की कली के समान जो दो उँगलियाँ बुर्के से बाहर बूढ़े के हाथ को पकड़े थीं—उसी से उस अनिन्द्य सुन्दरी की सुषमा का डाक्टर अनुमान कर लिया। वह भीता चकिता हरिणी के समान रुकती-अटकती सीढ़ियां चढ़ रही थी। उसका सीधा-लम्बा और दुबला-पतला किशोर शरीर और बहुत संकोच सावधानी से छिपाया हुआ प्रच्छन्न यौवन डाक्टर को विचलित कर गया। उसकी बोली बन्द हो गई। उसके मुँह से बात ही नहीं निकली।
सबके यथास्थान बैठ जाने पर वृद्ध ने एक बार छिपी नज़रों से बाला की ओर, फिर डाक्टर की ओर देखा, तब कहा:
"शायद आपने मेरा नाम सुना हो, मेरा नाम मुश्ताक अहमद है।"