पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वे दो हैं। अरुणा इस नारी की विवशता पर पहले ही द्रवित थी। वह भी उसके मुँह को एक क्षण को भी न भूली थी। अपने पुत्र को करुणा की गोद में डालकर जब बानू चली गई थी, उसका नवल, अमल-धवल गात, चम्पक के समान सुवर्ण और सुशोभित कोमल, कमनीय कलेवर, किशोर वय, उठता यौवन, जीवन का जैसे सरल प्रभात था! परन्तु अब? जल- रहित शारदीय बादलों के समान विस्तार में फैला हुआ, थकित, पराजित, नभित देह। रस- भरे उन उत्फुल्ल होंठों के स्थान पर सूखे-फीके खाली-खाली-से होंठ, सफेद रुई के गोले के समान लटके हुए कपोल, जल-रहित गढ़े में छटपटाती मछली-सी आँखें। और वर्षाऋतु की उपल बखेरती-सी दृष्टि यह सब क्या साधारण परिवर्तन था? परिवर्तन तो अरुणा में भी हुए थे। वह तो आयु में बानू से भी बड़ी थी-पचास को पार कर गई थी। पर वह माँ भी तो रही, पत्नी भी तो रही, गृहिणी भी तो रही। बानू न माँ, न पत्नी, न गृहिणी। तब उसने नारी-जन्म क्या पाया! नारी-जन्म पाकर भी, इतना रूप, श्री, विद्या, धन, सम्पत्ति सब कुछ पाकर केवल जीवन ही नहीं पाया पर जीवित रही अब तक। बिना जीवन का वह जीवन भी भला कैसी विडम्बना की वस्तु थी! यह सब देख-समझकर ही अरुणा चौधारे आँसू बहाती रही। और बानू ने तो इन आँसुओं की धार ही में अपनी तीन दशाब्दियों की सारी दिनचर्या अरुणा को बता दी। जब दोनों खूब रो चुकीं तो अन्त में बानू के आँसू सूखे। उसने हँसने की चेष्टा की। उसके होंठों पर हँसी देखकर भी अरुणा के आँसू न सूखे। बानू ने कहा, “रोती कब तक रहोगी बहिन? बैठो, कुछ अपनी कहो, कुछ मेरी सुनो।" “सुन नहीं सकती हूँ बहिन, मेरी छाती फट जाएगी। तुम्हारे इस रूप और इन आँसुओं ने ही सब कुछ कह दिया। लेकिन ऐसी पत्थर कलेजेवाली हो गईं कि इस अपनी बहिन को बिलकुल ही भूल गईं?" "भूल जाती तो यहाँ आती ही क्यों?" "क्या मेरे ही लिए आई हो?" "खुदा गवाह है, सिर्फ तुम्हारे लिए। अब और कहीं मेरा ठौर-ठिकाना भी कहाँ है? मेरी साँस-साँस में तुम्हीं तो रम रही थीं-एक पल को भी मैं तुम्हें भूली नहीं हूँ भाभी।" “फिर खत क्यों नहीं भेजा, आईं क्यों नहीं? युग बीत गए। दुनिया बदल गई।" "बदल जाए। तुम्हारी यह बानू तो वही है, और मैंने तुम्हें देखते ही जान लिया तुम भी वही हो। ज माने ने हमें नहीं बदला। खुदा का शुक्र है। लेकि खत तो कभी तुमने भी न लिखा।" “इसी डर से कि कहीं तुम नाराज़ न हो जाओ। तुम्हें यह पसन्द हो या नहीं, बात ही कुछ ऐसी थी। हमने समझा कि तुम हर तरह हमसे दूर ही रहना चाहती हो।" “चाहा तो यही बहिन, क्योंकि ऐसा न करती तो यह पहाड़-सी ज़िन्दगी शायद कटती भी नहीं।" “इसी से, लेकिन तुम्हारे प्यार से तो मेरा रोम-रोम भरा है।" “सो, क्या मैं जानती नहीं भाभी! तो अब यह मिट्टी तुम्हारे कदमों में है।" “ऐसी बात क्यों कहती हो बहिन, अब तुम खुश रहो। बहुत भोगा। मैं सब सुन चुकी