पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९९

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" “जो दिलीप को दी गई थी।" “उसमें मेरा क्या? और दिलीप का भी क्या? वह तो सभी भाई-बहिनों की है भाईजान! अब यह चर्चा मेरे सामने कभी न करना। साथ ही उससे भी मत कहना। "लेकिन बड़े नवाब ने दी तो थी उसी को।" "तो अब मैं सब भाई-बहिन को देती हूँ। इसके अलावा मेरी और भी तो जायदाद है, वहाँ और यहाँ। यह सब भी तो इन्हीं बच्चों की है। दुनिया में मेरा और कौन है?" हुस्नबानू की आँखों से छल-छल आँसू बह चले। डाक्टर के मुँह से भी बात नहीं निकली। सिर्फ आँखें बहती रहीं। बहुत देर तक सन्नाटा रहा। कुछ देर बाद डाक्टर ने कहा, “किसी चीज़ की तकलीफ न पाना। ज़रूरत हो तो फौरन खबर देना।" “ज़रूर दूंगी। लेकिन रहमत मियाँ आ गए हैं। फिर मेरी ऐसी ज़रूरत ही क्या है?" रहमत ने चाय लाकर रख दी। बानू ने खुद उठकर एक प्याला बनाया और डाक्टर की ओर बढ़ाया। डाक्टर प्याला लेकर खड़े हो गए। अदब और प्यार से हुस्न को वह प्याला देते हुए कहा, “यह एक प्याला मेरे हाथ का तुम पियो हुस्न, मेरे ऊपर इतना एहसान तो कर दो!” डाक्टर भीतर से बाहर तक विचलित हो उठे। हुस्न ने हँसकर कहा, “लाइए, लाइए मेरे लिए तो यह पाक तबर्रुक है, जिसके लिए इतनी लम्बी ज़िन्दगी तरसते ही बीत गई।” उसने दोनों हाथ फैला दिए। डाक्टर ने प्याला बानू के काँपते हाथों में दे दिया फिर दूसरा प्याला स्वयं बनाकर चुपचाप पीकर उठ खड़े हुए। दोनों ही इस समय भाव-समुद्र में डूब-उतरा रहे थे इसी से किसी ने भी बात न की। जैसे उन क्षणों में दोनों एक-दूसरे में खो गए हों। डाक्टर के खड़े होते ही बानू ने उठकर कहा, “कल सवारी भेज दूंगी। अरुणा बहिन को भेज दीजिए।" "अच्छा।” कहकर डाक्टर आँखें पोंछते हुए उठ खड़े हुए। 32 अरुणा और बानू का मिलन गाय और बाछी का मिलन था। बहुत देर तक दोनों एक- दूसरे की गोद में सिर दिए मूक रुदन करती रहीं। बानू जो अपना पुत्र-हृदयधन, प्रेम, आशा और उल्लास का प्रथम और एकमात्र चिह्न अरुणा को सौंपकर निर्मोही की भाँति मुँह मोड़कर चली गई, और निराशा, दु:ख-दर्द के झाड़-झक्कड़, वन-पर्वत पार करती हुई, यौवन की देहरी पार करने से लेकर वार्धक्य के प्रांगण में जा खड़ी हुई–सो क्या उसने दुख-दर्द, निराशा और क्षोभ से भरे अपने लम्बे उबा देने वाले जीवन में एक क्षण को भी उस गोद की स्मृति को भूली जिसमें वह अपने कलेजे के टुकड़े को डाल गई थी? फिर बात केवल इतनी ही नहीं थी, अरुणा भी बानू से एकरस हो चुकी थी-एक ही थाल में उसके साथ खाना खाकर जो उसने अपनी गहरी एकता का परिचय दिया था उसे भी बानू भूल न सकी थी। सो आज, जब यह पहली मुलाकात हुई तो बहुत देर तक वे दोनों यह भूल ही गईं कि