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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१०६

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भारत में सुनाई दी। पर पीछे जिन्ना के कांग्रेस से पृथक् होने पर यह आवाज़ गायब हो गई। वे कहने लगे–न हम हिन्दुओं के भाई हैं और न उनके साथी। हमारा अपना एक पृथक् राष्ट्र है और उसके पृथक् ही स्वार्थ भी हैं। इस पृथक् राष्ट्र का पृथक् स्वार्थ था तो केवल हिन्दुओं के मुकाबले, पर उसे ओट लिया कांग्रेस ने अपने सिर। इसलिए अब एक तरफ कांग्रेस थी जिसमें मुसलमानों का भी हिस्सा था; दूसरी तरफ मुस्लिम लीग जो केवल मुसलमानों ही की थी। उसका यह अर्थ था कि हमारा माल तो हमारा है ही, तुम्हारे में भी हमारा हिस्सा है। कांग्रेस हिन्दुओं का समर्थन न कर सकती थी। वह तो अपने को असाम्प्रदायिक संस्था कहती थी और गाँधीजी अपनी साधुतावश सादा चेक मुसलमानों को देने को राजी थे। जब तक अंग्रेज़ों की अमलदारी थी तब तक तो मामला थोड़ी-सी नौकरियों तथा कुर्सियों ही का था। परन्तु अब उसने भारत के बँटवारे का रूप धारण कर लिया था। अब मुसलमान जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की माँग कर रहे थे। इन दलों के अलावा राजे-महाराजे थे, जो चाहते थे कि अंग्रेज़ों के जाने पर वे स्वेच्छाचारी हो जाएँ। जवाहरलाल ने उसके सम्बन्ध में यह व्यक्त किया था कि आज के भारत में राजा-महाराजाओं की कोई गिनती नहीं है–संधि के अधिकार जो पत्थर की भाँति निर्जीव पड़े हैं, या राज्यवंश के अधिकार, जिनका जनता की आँखों में कोई मूल्य नहीं है, निरर्थक हैं। तथ्य केवल मानवीय अधिकारों में है। उसी मापदंड को सामने रखकर हम समस्याओं पर विचार और निर्णय कर सकते हैं। समाजवादी लोग कह रहे थे कि भारतवर्ष में एक समाजवादी ढंग की शासन-व्यवस्था होनी चाहिए, जिसमें सभी व्यक्तियों को उन्नति का पूरा-पूरा अवसर मिले तथा सारा अधिकार जनता का हो। अम्बेडकर अपने को छ: करोड़ हरिजनों का नेता कहते थे। वे राष्ट्रीय हित से भी प्रधान अपने वर्ग को समझते थे। वे हरिजनों को हिन्दुओं से पृथक् मानना चाहते थे।

इंग्लैंड से मन्त्रियों का एक मन्त्रिमण्डल योजना लेकर आया। योजना पर बहुत वाद-विवाद हुआ। अन्त में, भारत का विभाजन हो गया। पाकिस्तान पृथक कर दिया गया। पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल जिन्ना बनाए गए। भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड माउंटबेटन बने। संयुक्त रक्षा कौन्सिल के अध्यक्ष भी माउंटबेटन बने। परन्तु भारत का गर्वनर-जनरल के लिए भारत की राय नहीं ली गई। पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल तो लीग की सहमति से हुआ, पर पाकिस्तान ने स्वच्छन्द आचरण प्रारम्भ कर दिया और देखते ही देखते पश्चिम पंजाब और पूर्वी बंगाल में मार-काट, लूट, आग, बलात्कार, हत्या का बाज़ार गर्म हो गया। चारों तरफ से मारकाट, लूटमार के समाचार आने लगे, और देखते ही देखते यह हत्याकाण्ड ऐसा विराट रूप धारण कर गया जो मानव-जाति के इतिहास में अपना सानी नहीं रखता था। इस समय की पिशाच-लीलाओं का वर्णन लेखनी नहीं कर सकती। लायलपुर, मिण्टागुमरी, शेखूपुरा, लाहौर और गुजराँवाला सिक्खों के गढ़ थे। वहाँ से उन्हें बुरी तरह भागना और मरना पड़ा। लाहौर और कलकत्ता के बाज़ारों में भयंकर अग्नि की गगनचुम्बी लपटें उठीं। निरीह औरतों, बच्चों, बूढ़ों, जवानों के आर्तनाद; घरों, कूचों बाज़ारों में, अस्पतालों में दम तोड़नेवालों की हिचकियाँ सुनाई पड़ीं। कलकत्ता से आग की भयंकर लपटें नोआखाली, बिहार, इलाहाबाद, बम्बई और दिल्ली आ पहुँचीं।