सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

का यह नतीजा हुआ कि आज आठ दिन से उसकी सूरत तक नहीं दिखाई दी।"

"लेकिन बानू की सुरक्षा तो करनी ही होगी, चाहे जो भी हो।"

"पर हम कर भी क्या सकते हैं?"

"मुझे जाना होगा, क्या कोई सवारी मिलेगी?"

"पागल तो नहीं हो गई हो, देखती हो शहर का क्या हाल है!"

"जो भी हो।" अरुणादेवी ने एक क्षण भी खोना खतरनाक समझा, अंग पर दुपट्टा डाल जैसी खड़ी थी चल खड़ी हुईं।

"यह क्या कर रही हो, सुनो तो!"

"तुम समझते नहीं हो, बानू की जान पर आ बनी है।"

"तो फिर सुशील को साथ लेकर मैं जाता हूँ।"

"नहीं, और किसी का काम नहीं है। बानू के बिना हुक्म, मैं किसी से उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकती।"

"तब ठहरो, मैं भी चलता हूँ।" डाक्टर भी अरुणादेवी के साथ हो लिए। चलती बार सुशील को उन्होंने सावधान करके कहा, "हमें देर लग सकती है। सम्भव है रात को भी न आ सकें, पर तुम चिन्ता न करना।"

सुशील, शिशिर और करुणा भय और उद्वेग से देखते रह गए और ये दोनों कर्मठ पति-पत्नी पैर बढ़ाते हुए मुसलमानों के मुहल्ले में घुसे।

चलते-चलते डाक्टर ने कहा, 'सुनती हो, हम लोग बड़े ही खतरे में जा रहे हैं। कोई भी मुसलमान अपने घर से हमें गोली मार सकता है।"

"कोई सवारी मिल जाती तो ठीक था।"

"सम्भव नहीं है।" उन्होंने चारों ओर व्याकुल दृष्टि से देखा। परन्तु अरुणादेवी द्रुतगति से कदम बढ़ाती चली जा रही थीं। फर्राशखाना आ गया। वे गली में घुसे। विचित्र शब्द, शोरगुल और भय का वातावरण जैसे उन्हें निगले जा रहा था, परन्तु वे दोनों मूर्तियां तो आगे बढ़ती जा रही थीं। गली सूनी थी–एकाध कुत्ता भौंक रहा था। दोनों रंगमहल के निकट सही-सलामत पहुँचे। सामने कोई पचास कदम पर रंगमहल था। रंगमहल की ओर से बड़ा भारी शोर आ रहा था। दिलीप का दल वहाँ पहुँच चुका था। दल में बहस हो रही थी। दल के लोग कह रहे थे पहले रंगमहल को लूट लो, उसके रहनेवालों को मार डालो, पीछे उसमें आग लगा दो। दिलीप कह रहा था–नहीं, आग लगा दो। सब कुछ भस्म हो जाने दो।

इसी समय डाक्टर और अरुणादेवी वहाँ पहुँच गए। भीड़ में उन्होंने एक शब्द भी न कहा, न उन्होंने दिलीप की ओर आँख उठाकर देखा। वे दोनों भीड़ को धकेलते हुए भीतर घुस गए। भीड़ में कुछ लोग डाक्टर को पहचानते थे, कुछ नहीं। जो पहचानते थे वे ज़रा दुविधा में पड़े कि इस समय दिलीप के माता-पिता को यहाँ आने का क्या काम था?

वे दिलीप का मुँह ताकने लगे। उनकी बहस बन्द हो गई। जो नहीं जानते थे वे भी जान गए, दिलीप के माता और पिता आए हैं। उन लोगों का वहाँ आने का उद्देश्य क्या है–यही जिज्ञासा सबकी आँखों में फैल गई। उनका विवाद भी जहाँ का तहाँ रुक गया।

डाक्टर और अरुणा देवी वहाँ रुके नहीं, भीतर की पौर पर चढ़ते चले गए। दिलीप ने आगे बढ़कर कहा, "बाबूजी, आप वहाँ कहाँ आ रहे हैं, ज़रा ठहरिए।" डाक्टर ने रुककर