पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/११५

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38 होश आने पर दिलीप ने आँखें खोलीं। उसने इधर-उधर नज़र घुमाई। एक चेहरे पर उसकी नज़र अटक गई। पलंग के पास एक स्त्री कुर्सी पर बैठी थी। वह झुककर उस समय ध्यान से उसे देख रही थी। चेहरा उसने पहचाना नहीं। 'तुम कौन हो?" यही शायद वह कहना चाहता था, परन्तु होंठों से बोली नहीं फूट रही थी। होंठ केवल हिलकर रह गए। उसने आँखें बन्द कर लीं। जो स्त्री पास बैठी थी उसने दो-तीन चम्मच जल उसके मुँह में डाल दिया। जल पीकर उसने फिर आँखें खोलीं। अब वह पूरे होश में था। उसने धीरे से कहा, "आप कौन हैं?" स्त्री मुस्करा दी। उसने जवाब नहीं दिया। दिलीप एकटक उस मुख को देखता रहा। उसने अपनी स्मृति पर बहुत जोर दिया, सिर दर्द करने लगा। उसने फिर आँखें बन्द कर लीं। पास बैठी स्त्री ने धीरे-धीरे उसके माथे पर हाथ फेरा। उस कोमल-स्निग्ध हाथ का स्पर्श पाकर दिलीप में जैसे नए प्राणों का संचार हो गया। उसने आँखें खोलकर उसे देखा और पूछा, “आप...आप कौन हैं?" “क्या पहचानते नहीं?" "न।" दिलीप ने सिर हिला दिया। स्त्री ने कहा : "तब जाने दीजिए। पहचानने की क्या ज़रूरत है। जाऊँ, बाबूजी को खबर कर देती हूँ। और स्त्री तेज़ी से उठकर चली गई। उसे रोकने के लिए दिलीप का हाथ उठा का उठा रह गया। थोड़ी ही देर में उस कमरे में डाक्टर, अरुणा, शिशिर, सुशील, करुणा-घर के सभी आदमी आ गए। सबके पीछे बानू। अरुणा ने आँखों में आँसू भरकर कहा, “कैसा है दिलीप?" दिलीप ने माँ का हाथ पकड़ लिया। उसने कहा, “मैं क्या बहुत बीमार हो गया था माँ?" “आज चौथा दिन है, तभी से बेहोश पड़े हो।" “मैं कहाँ हूँ?" “क्यों, अपने घर ही में तो हो!" “करुणा कहां है?" “मैं यह हूँ भैया।" करुणा आगे आई। उसे ध्यान से देखकर वह 'अच्छा' कहकर चुप हो गया। कुछ देर बाद उसने अपनी स्मृति पर ज़ोर देकर कहा, “उस घटना में सब बच गए न, सब लोग कहाँ हैं?" “यहीं हैं सब।” दिलीप ने अपनी आँख घुमाई। बानू सबसे पीछे खड़ी थी। उसकी ओर देखकर दिलीप ने आँखें नीची कर ली। अरुणा ने कहा, “यहाँ आओ बहिन, यहाँ बैठो।" बानू आकर दिलीप के सिरहाने खड़ी हो गई। दिलीप ने फिर उसकी ओर देखकर कहा, “आप तो मुझसे नाराज़ नहीं हैं?"