"माँ, वे तो जीते-जी हमें छोड़ेंगी नहीं।"
"तब फिर बेटे, हमारा भी अब और ठिकाना कहाँ है! मैं तो सब कुछ छोड़कर अब उन्हीं के आसरे पर हूँ।"
"परन्तु आप माँ समझती नहीं हैं। उनके बच्चे हैं, उनकी ब्याह-शादी में बड़े झंझट उठ खड़े होंगे, उनका खानदान तबाह हो जाएगा। हमें यह भी तो सोचना चाहिए। हिन्दुओं की रीति-रस्म जात-पाँत के मामले बड़े टेढ़े हैं, हमें उनकी राह का रोड़ा नहीं होना चाहिए।"
"तो तू जो ठीक समझे वही कर, लेकिन सब कुछ उन्हीं के हुक्म से।"
"अच्छा, मैं उनसे बात करूँगा।"
41
जब दिलीप ने अरुणादेवी का एक भी अनुरोध-निषेध नहीं स्वीकार किया, तो अरुणादेवी ने हिचकियाँ लेते हुए रोष-भरे स्वर से कहा, "दिलीप, तू ऐसा ही निर्दय होना चाहता है तो अपने माँ-बाप की भले ही मिट्टी ख्वार करके चला जा–लेकिन माया की बात कुछ सोच। उस पर तो रहम कर।"
"उसे तुम समझा देना माँ, वह सब बातें अभी कहाँ समझती है? कुछ दिन में यह सब कुछ भूल जाएगी।"
"तू क्या उससे एक बात भी न करेगा?"
"न।"
वह पागल की भाँति उड़कर तेज़ी से बाहर चला गया। गाड़ी आ गई। अरुणा पछाड़ खाकर गिर पड़ी। अरुणादेवी ने बानू को कसकर अंक में भर लिया–हौले-हौले कहा, "बहिन, गरीब का धन लूट ले चलीं तुम!"
रायसाहब और डाक्टर सकते की हालत में खड़े थे। सुशील और शिशिर जार-जार आँसू बहा रहे थे। "भैया, भैया" कहकर दिलीप के पैरों में लिपट पड़े थे।
दिलीप ने लम्बे-लम्बे डग भरते हुए बानू से कहा, "आओ, देर हो रही है।" और वह गाड़ी में घुसा। परन्तु यह क्या? माया वहाँ चुपचाप, स्थिर, निश्चल बैठी थी। दिलीप को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने हकलाते हुए, "यहाँ क्यों?"
"मेरी मर्जी।"
"लेकिन हम दूर जा रहे हैं माया।"
"चलो फिर, रोकता कौन है तुम्हें?"
"लेकिन...लेकिन तुम्हारा जाना तो नहीं हो सकेगा।"
"खूब अच्छी तरह हो सकेगा, मेरी अपनी आँखें हैं, अपना मन है, अपने पैर हैं।"
"माया, क्या मैं इस काबिल हूँ कि तुम अब इस समय मुझ पर गुस्सा करो? मानता हूँ कि क्षमा के योग्य नहीं, लेकिन रहम..."
दिलीप की ज़बान लड़खड़ा गई।