सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

माया ने कहा, "अब सब बातें क्या यहीं सड़क पर खड़े होकर होंगी? गाड़ी में बैठो।"

"नहीं।"

"तो घर में चलो-वहाँ चलकर जो कहना हो कहो।"

"चलो फिर।" दिलीप ने भरे हुए स्वर में कहा। माया चुपचाप गाड़ी से उतरकर घर में चली गई। उसके पीछे दिलीप भी। सब चुपचाप देख रहे थे।

कमरे का दरवाज़ा भीतर से बन्द करके दिलीप ने कहा, "माया!"

"ठहरो, पहले यह बताओ कि सब बात तय करने से पहले तुम मुझसे क्यों नहीं मिले? मुझसे क्यों नहीं पूछा?"

"मैं, मैं...माया...क्या इस योग्य रह गया, तुमने तो सब बातें जान ही लीं।"

"तो?"

"अब भला मैं तुमसे कैसे आशा कर सकता था! फिर इतना स्वार्थी भी नहीं हूँ कि तुमसे किसी कुर्बानी की दरख्वास्त करूँ।"

"तुम कितने स्वार्थी हो, इसका सबूत तो तुमने सदा से ही दिया है। और सबसे ताज़ा सबूत तुम्हारा यों मुँह मोड़कर भागना है।"

"मुँह मोड़कर भागने को छोड़ दूसरा चारा नहीं है माया।"

"सबसे मुँह मोड़ सकते हो, लेकिन मुझसे भी मुँह मोड़ चले। सो मैंने पत्थर के देवता को रोम-रोम में बसाकर उसकी पूजा की। सुनते तो हैं कि पत्थर के देवता भी सच्ची उपासना से प्रसन्न हो जाते हैं, अभीष्ट वर देते हैं, पर तुम पत्थर से भी निष्ठुर निकले। और क्यों न निकलते, हिन्दू तो तुम हो नहीं, फिर हिन्दू देवता का बड़प्पन तुममें कैसे आ सकता था!" माया की आँखों से झरना बह चला।

दिलीप ने कहा, "तुम्हारा इतना गुस्सा मैं बर्दाश्त नहीं कर सकूँगा माया! मेरी छाती फट जाएगी। मैंने कुछ और ही सोचा था, परन्तु तुम तो..."

"हाँ, अपने ही जैसा निर्मम, निष्ठुर, मूढ़ तुम दूसरों को भी समझते हो।"

दिलीप ने दोनों हाथ फैलाकर कहा, "माया, हुक्म दो कि क्या करूँ।" किन्तु माया अर्ध-मूर्छित-सी होकर झूमने लगी। दिलीप ने लपककर उसे अपने अंक में भर लिया। माया ने सिसकते-सिसकते कहा, "तुमने मुझे छोड़कर चला जाना इतना आसान समझ लिया था?"

"वाह माया, मैं हिमालय का उल्लंघन कर रहा था। तुम्हारे मन की मैं समझ गया। सच पूछो तो मैं केवल तुमसे ही भाग रहा था केवल तुमसे; इसी से मैंने माँ का, बाबूजी का, पिताजी का, किसी का भी अनुरोध नहीं माना। मैं क्या जानता था कि तुम मेरी हो, किन्तु एक बार अपने मुँह से कह दो तो।"

"मैं तो यह भी नहीं जानती कि तुम तुम हो और मैं मैं हूँ। परन्तु अंत में तुमने मुझे निर्लज्ज बनाकर ही छोड़ा।"

दिलीप ने दोनों बलिष्ठ हाथों में माया को अधर आकाश में उठा लिया। उसने कहा, "माया, लो इन प्राणों को संभालो, ये तुम्हारे हैं। चलो, माँ को प्रणाम कर आएँ।"

और जब दोनों ने आकर दोनों माताओं के चरणों में, जो अभी परस्पर बद्ध खड़ी थीं, अपने को डाल दिया, तो बानू ने माया को उठाकर छाती से लगा लिया और दिलीप ने फिर