पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१३

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"आपकी शादी हो गई है?"

“जी हाँ।"

"आपको कोई बाल-बच्चा है?"

“जी नहीं।"

“बेहतर, तो आप इस बच्चे के 'धर्मपिता' बन जाइए। मैंने हिन्दू आलिमों से सुना है, भले हिन्दू धर्मपिता' होना सवाब का काम समझते हैं। मैं इक्कीस गाँवों का समूचा इलाका इस बच्चे के नाम कर दूंगा। लेकिन बज़ाहिरा आप बच्चे के धर्मपिता नहीं, असल बाप ही कहलाएँगे। यानी यह बच्चा मेरी लड़की का नहीं, आपका ज़ाती बच्चा, आपका और आपकी बीवी का पैदायशी बच्चा कहलाएगा। और मैं आपके इस बच्चे का 'धर्मपिता' बनकर अपनी आधी जायदाद, यानी इक्कीस मौज़ो का इलाका बच्चे के नाम लिख दूंगा।"

डाक्टर का सिर घूम गया। उसने कहा—“लेकिन यह हो कैसे सकता है?"

“आप मंजूर कर लीजिए तो मैं यह भी अर्ज करूँगा।"

“आप पूरी बात कर लीजिए, तो मैं कुछ सोचूं और अर्ज करूं।'

“पहली बात तो यह कि आप और आपकी बीवी दोनों हमारे साथ मंसूरी चलें। और जब तक बच्चा पैदा होकर तीन महीने का न हो जाए, हमारे साथ वहीं रहें। इस दौरान में मैं आपको बतौर हर्जाने पाँच हज़ार रुपए माहवार दूंगा, इसके अलावा तमाम अखराज़ात भी मैं उठाऊँगा। किसी किस्म की तकलीफ आपको न होगी। यह मई का महीना खत्म हो रहा है, जुलाई या अगस्त में डिलीवरी हो जाएगी। और अक्तूबर के आखिर तक आप ढाई या तीन माह के बच्चे को लेकर बखुशी दिल्ली आ सकते हैं। किसी को कानों-कान यह शक करने की गुंजाइश भी न रहेगी कि बच्चा आपका नहीं है। यहाँ आकर आप एक दावत अपने दोस्तों को दे सकते हैं, तभी मैं भी आपको दावत देकर इलाका आपके बच्चे को लिख दूंगा।"

डाक्टर सोच में पड़ गए। फिर कहा, “मुझे आप सोचने का कुछ समय दीजिए। फिर मुझे अपनी स्त्री से भी सलाह करनी होगी।"

“सोचने-विचारने का मौका मैं आपको नहीं दूंगा, और आपकी बीवी से इस मामले में मैं ही बात करूँगा। और अगर मेरी यह आरजू नहीं मानेंगे तो मैं समझ लूँगा कि मेरे और आपके वालिद के बीच पचास साल तक जो भाईचारा रहा, उसकी कीमत आप, गो कि बहुत शरीफ और आमिल हैं, कानी कौड़ी के बराबर भी नहीं समझते।"

बूढ़ा नवाब तैश में आकर खड़ा हो गया। फिर उसने कहा, “और कुछ मिनट आपके बरबाद होंगे—यहाँ तक जब बात हो चुकी है तो आपको मुनासिब है कि आप बानू से भी दो-दो बातें कर लें। मैं तब तक बाहर जाता हूँ।"

इतना कहकर नवाब उसी भाँति छड़ी टेकता हुआ बाहर आकर कार में बैठ गया।

डिस्पेन्सरी में रह गए—डाक्टर और हुस्नबानू शाहज़ादी। कुछ देर सन्नाटा रहा―

इसके बाद हुस्नबानू ने कहा, 'ज़रा तकलीफ उठाकर डिस्पेंसरी का दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लीजिए—बेआबरुई का मर्ज़ है—डाक्टर से परदा फजूल है, मगर दीगर...।” वीणा की झंकार के समान कुछ कोप के-से ये स्वर डाक्टर की चेतना को आहत-सा कर गए।

डाक्टर ने उठकर द्वार बन्द कर लिया। दरवाज़ा बन्द करके जब वह लौटा तो उसकी आँखें चौंधिया गईं। हुस्नबानू ने अपना बुर्का उतारकर रख दिया था—स्लेटी रंग की न्यूकट