पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/२१

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करके कुछ हल्का हुआ, और उन्होंने मुस्तैदी से इस दर्द को चुपचाप सहने का इरादा कर लिया। एक दिन अवसर पाकर, वे पत्नी के पास आकर उसके पलंग के पायताने उसके पैर गोद में लेकर चुपचाप बैठ गए।

अरुणा ने जल्दी से पैर सिकोड़कर कहा, “यह क्या करते हो! वहाँ क्यों बैठ गए—यहाँ बैठो।" उसने तकिया सरकाकर सिरहाने जगह की।

डाक्टर ने कहा, “अरुणा, अपनी शर्म तुम्हें कैसे दिखाऊँ? लेकिन तुम क्या मुझे माफ नहीं कर सकतीं?"

"क्या बात है, साफ-साफ कहो।"

“कहने से क्या होगा, तुम सब जानती हो, तुम्हारी यह हालत हो गई है। यह सब मेरी ही तो मूर्खता से न! पर अब मेरी आँखें खुल गईं–बहिन ने मेरी आँखें खोल दीं!"

"बहिन! कौन बहिन?"

“हुस्नबानू। मेरा मन मोह और पाप में फँस गया था। उसका वह रूप, शील, तेज और सबके साथ इस परिस्थिति ने मेरे मन में मैल पैदा कर दिया था। मैं उसके प्रेम में विकल हो गया था। वह भी शायद लाचार होगी। पर उसने मुझे सीधी राह दिखा दी।'

“सीधी राह?"

“हाँ प्रेम, और भक्ति का भेद। और उसी समय मैंने उसके पैरों की पूजा भक्ति-भाव से की। वह स्त्री नहीं देवी है, प्यार की नहीं भक्ति की पात्र है। वह महान् है, देवताओं की जाति की है। तुम तो मुझे नास्तिक कहती और मेरा मज़ाक उड़ाती रहती थीं, पर मुझे आज तक अपने ठाकुर का पुजारी न बना सकीं। पर उसने बना दिया। उसकी मैंने पूजा कर ली। अब तुम्हारी करूँगा और तुम्हारे इन राधा-कृष्ण की युगल जोड़ी की! श्रद्धा और भक्ति से मेरा रोम-रोम पुलकायमान हो रहा है। लाओ दोनों पैर मेरी गोद में रख दो कि मैं समझूँ कि मैं पाक-साफ हो चुका, अपनी गलती सुधार चुका, तुम्हारा हो चुका!” अरुणा चुपचाप आँसू बहाती रही। और डाक्टर ने जब फिर उसके पैरों पर हाथ डाला, तो उसने पैरों को खींचकर पति के दोनों हाथ पकड़कर उन्हें वक्ष पर गिरा लिया।

वह मूक रुदन बहुत कुछ कह गया-दु:ख-दर्द की कहानी। बहुत कुछ बहाकर ले गया–दु:ख-दर्द की गन्दगी। अन्त में अरुणा ने सिसकते हुए कहा:

“तुम जानते ही हो कि धरती-आसमान पर मेरे लिए एक तुम्हारा ही आसरा है। मैंने अपनी यह अधम नारी-देह तुम्हें दी है। अब तुम्हीं यदि मुझे धोखा दो—सोचो तो ज़रा।"

परन्तु अरुणा अधिक न कह सकी; डाक्टर का मुँह देखकर उसने सिर नीचा कर लिया। बड़ी देर तक दोनों मूक बने बैठे रहे। फिर धीरे से अरुणा ने हाथ बढ़ाकर पति का हाथ पकड़ लिया। उसने आँखों में आँसू भरकर कहा, “क्या मैंने तुम्हें बहुत दु:खी कर दिया?"

डाक्टर फिर चुप रहे। अरुणा एकबारगी ही असंयत हो उठी। उसने कहा, “मुझे तुम जो चाहो सज़ा दे लो पर ऐसा मुँह न बनाओ। यह मैं नहीं देख सकती।"

डाक्टर ने कहा, "अरुणा, तुम्हारे इस प्रेम का तो ओर-छोर ही नहीं है। पर अब तुम अपने पति पर विश्वास करो। मैं तुम्हारा हूँ-सिर्फ तुम्हारा। हुस्नबानू ने मेरे-तुम्हारे बीच एक अटूट सम्बन्ध पैदा कर दिया है। सम्बन्ध या बन्धन, जो भी तुम कहो—वह ऐसा नहीं