पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/२३

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बालिका। इसी से यह सब व्यवस्था निर्दोष और विचित्र रीति पर हो गई—जैसाकि नवाब ने चाहा अपने संस्कार के अनुसार।

प्रोफेसर हबीब को भी नवाब ने अपनी नज़र से दूर नहीं किया। उन्होंने उसे हुस्नबानू से सब सम्बन्ध तर्क कर देने को ही राज़ी न कर लिया, विदेश जाने को भी राज़ी कर लिया; और एक भारी रकम देकर पाँच साल के लिए विदेश भेज दिया। इसके बाद ही उसने डाक्टर की ओर रुख किया था। अलबत्ता इस काम में भी सब कहना-सुनना हुस्नबानू ही ने किया। अपने अपरिसीम प्यार के नाम पर जीवन के प्रत्येक श्वास को पीड़ामय बनाकर हबीब चुपचाप जहाज़ में जा बैठा।

यथासमय बानू की शादी नवाब वज़ीर अली खाँ बहादुर से हो गई। पुराना नवाबी घर था। दूल्हा भी साधारण न था। रईसों का इस विवाह में जमघट लग गया। रंगमहल के द्वार पर उस समय समूची दिल्ली उमड़ आई। भाँड-भंडले, रोशन चौकी, कटोरे वाले, कव्वाल, रंडी-भड़वे, रईस-अमीर—सभी के लिए उस समय रंगमहल का द्वार खुल गया। दावतों का तूमार बंध गया।

उस समय तक न पाकिस्तान बना था, न हिन्दू-मुस्लिम झगड़े खड़े हुए थे। दिल्ली में ज़फर, ग़ालिब, ज़ौक़ और मीर के कलाम गली-गली घूमते रहते थे। बड़े-बड़े मुसलमान, व्यापारी अपनी कोठीनुमा दुकानों में बैठे, अतलस का कुर्ता पहने, पान कचरते, लचकती दिल्ली की भाषा में अपने को ‘देहलवी' कहकर अपनी सुर्मई आँखों में लाल डोरे सजाए रहते थे। चाँदनी चौक उन दिनों आज की भीड़भाड़ से भरा आदमियों का जंगल न था। वह एक बाज़ार था, ऐसा बाज़ार जहाँ रईसों की सात बादशाहतों की प्रत्येक हल्की-भारी जिन्स एक ही जगह मिल जाती थी। जौहरी नुक्केदार पगड़ी बाँधे, महीन तनज़ेब से अपने भारी-भरकम देह ढाँके, हीरा, मोती, पन्ना, जवाहर का मोल-भाव करते, गिन्नियों और अशर्फियों को परखते थे। नोटों का गिनना लोगों को पसन्द न था। नफासत और फसाहत दिल्ली की जान थी। पेस्ट्री और टोस्ट तब कौन खाता था! सोहन हलवा और दालमोठ दिल्ली की सबसे बढ़कर नियामत थी। आज तो रुपए सेर सब्जी-तरकारियाँ आला-अदना खरीद खाते हैं, परन्तु तब रुपए सेर की सब्ज़ियाँ रईस खाते थे। रईसों के कहार-महरियाँ सौदा-सुल्फ करते थे। हिन्दू पक्के हिन्दू थे, और मुसलमान पक्के मुसलमान। परन्तु इससे उनके आपसी भाईचारे में अन्तर न पड़ता था। परस्पर एक-दूसरे के घर आना-जाना, खाना-पीना होता था। मुसलमान के घर जब हिन्दू दोस्त जाता तो वह नौकर को यत्नपूर्वक सावधान करके कहता, “बन्नू, ज़रा संभालकर एहतियात से तमोली की दुकान से पान बँधवा ला।" और पान आते थे ढाक-पलाश के हरे-कोमल पत्तों में खूब अच्छी तरह बँधे, डोरे में हाथ-भर नीचे लटकते हुए—मुसलमान नौकर से अछूते।

व्याह-शादी में हिन्दू हलवाई, हिन्दू नौकर खाना बनाते-खिलाते और मुसलमान मालिक दूर खड़ा अदब और बेचैनी से देखता रहता, सब ठीक तो है। इसे वह अपनी तौहीन नहीं, अपना-अपना अकीदा, अपना-अपना रिवाज समझता था। नवाब मुश्ताक अहमद के हिन्दू-मुसलमानों से व्यापक सम्बन्ध थे। बड़े-बड़े रईसों से लेकर छोटे लोगों तक की भरमार थी। हिन्दू भी और मुसलमान भी। पर सबके खाने-पीने, विनोद-विहार करने के अलग इन्तज़ाम। क्या मजाल कि कहीं कुछ शिकायत सुनने को मिल जाए!