पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/२५

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“यह न होगा।"

“नहीं रानीजी।"

"नहीं भाभीजी।"

“ज़िद मत करो, हाथ जोड़ती हूँ।"

“फिर तो ज़िद करने कभी आऊँगी नहीं।"

"तो मानोगी नहीं?"

“न, किसी तरह नहीं।"

"तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ ही खाऊँगी, एक ही थाल में।"

और वह हुस्नबानू के सामने बैठ गई, थाली से एक ग्रास उठाया। बानू ने कहा, यह क्या करती हो भाभी!"

“बहिन, ननद बनना इतना आसान नहीं है। तुम्हारा जिगर का टुकड़ा अब मेरी गोद में है। अब भी भेदभाव रह सकता है? अब भी क्या हम-तुम दो हैं? चलो शुरू करो।"

"लेकिन भाभी..."

"दुलखो मत, यह एक पवित्र काम है, पुण्य है। जब तक मैं तुम्हारे साथ नहीं खाऊँगी, तुम्हारे बेटे को अपनाऊँगी कैसे?"

"लेकिन भाईजान क्या कहेंगे सुनकर?"

“खुश होंगे।"

"तो भाभी, जैसा तुम्हारा हुक्म!” उसने ग्रास मुँह में डाला। और आँखों से गंगा-जमुना की धार बह चली।

अरुणा ने कहा, “यह क्या करती हो रानीजी! फिर कब मुझे यह नसीब होगा तुम्हारे साथ खाने का अवसर! हँस-बोलकर खाओ, नहीं तो रूठ जाऊँगी।"

“तुम न रूठना बहिन, खुदा भले ही रूठ जाए।"

बानू ने आँसू पोंछ लिए।

"तो हँस दो बस अब!”

बानू हँस दी।

अरुणा ने एक बड़ा-सा कौर बानू के मुँह में ठूँस दिया। बानू ने कहा, “अब मेरा कसूर नहीं भाभी, ईमान अपना तुम्हीं ने बिगाड़ा है!” यह कहकर उसने भी हाथ का कौर अरुणा के मुँह में ठूँस दिया।

खाना खत्म होने पर जब हुस्नबानू पान खा चुकी तो कहा, “बहिन, मैं तो किसी अपने ही मतलब से ज़बर्दस्ती दावत माँगकर आई थी, लेकिन तुमने अपने साथ खाना खिलाकर मुझे क्या कुछ न दे दिया? अब इस बदनसीब बानू की एक आरजू पूरी कर दो बहिन, एक बार मेरे लाल को मुझे दिखा दो!”

हुस्नबानू की आँखें फिर गंगा-जमुना की धार बहाने लगी। अरुणा ने कहा, “मैं तो कहने ही वाली थी तुमसे बहिन, लेकिन क्षण-भर ठहरो।" वह तेज़ी से भीतर चली गई। उसने दासी को पुकारकर कहा:

"दिलीप क्या सो रहा है राधा?"

"नहीं, जग रहा है।"