"मंगा लो, लेकिन तुमने सुना, मैं जल्द एक फिल्म प्रोड्यूस करने की सोच रहा हूँ।"
"सच?"
"और मैं उसमें एक्टिंग करूँगा, समझ लो इस कदर सही एक्टिंग कि..."
हुस्न अब अपनी हँसी न रोक सकी। उसने कहा, "क्या हर्ज है, यह तो अब बड़ी इज़्ज़त का पेशा समझा जाने लगा है।
"यह आर्ट है, आर्ट। बानू, मगर ये बेवकूफ ऐक्टर नवाब का पार्ट करते हैं, गलत। ये क्या जानें नवाब कैसे रहते हैं। और मैं तो खुद नवाब हूँ। मुझे तो कुछ सीखना ही नहीं है।"
हुस्नबानू ने एक ठण्डी साँस ली। वह सोच रही थी, तमाम ज़िन्दगी इसी जाहिल, खब्ती आदमी के साथ बितानी है। जब यह आदमी साथ होगा तो अपनी हिमाकत और बेवकूफी से परेशान करेगा, और जब अकेले होऊँगी तो पुरानी यादें आ-आकर दिल कौंचेंगी। वाह्, खूब ज़िन्दगी रही। बड़ी देर तक हुस्नबानू यही सोचती रही।
नवाब ने कहा, "क्या सोच रही हो बानू?"
"यही कि मैं नाचीज़ क्या आपके लायक हूँ।"
"वाह, यह भी कोई बात है! मुझे तुम खूब पसन्द हो, और मैं रोज़ तुम्हारे यहाँ आऊँगा। बखुदा हमारी-तुम्हारी मुहब्बत दिन-दिन बढ़ती जाएगी।"
"खुदा ऐसा ही करे।" धीरे से हुस्न ने कहा और दस्तक दी। दासी के आने पर उसने कहा—
"दस्तरखान लगाओ।"
दस्तखान बिछा, नवाब और बानू ने खाना खाया। फिर बातें हुईं। बातों के अनेक विषय थे। रात गलती गई। मगर नवाब ने कपड़े तक नहीं खोले। बारह बजने पर नवाब ने घड़ी की ओर देखा, और कहा, "अच्छा, अब चलता हूँ।"
और वे चल दिए, अपनी पुरानी जेल में, ताला बन्द करके सोने के लिए। इस अनोखी रीति के रहस्य को न समझकर हुस्नबानू हैरान होकर पत्थर हो गई।
9
दूसरे ही दिन हुस्नबानू ने ज़ीनतमहल से मुलाकात की। ज़ीनत पहले तो ज़रा खिंची-खिंची-सी रही, फिर दोनों में खूब मेल हो गया और दोनों दिल खोलकर बातें करनी लगीं। ज़ीनत ने कहा, "पसन्द आए दूल्हा मियाँ?"
"उन्हें कौन न पसन्द करेगा? उनमें इतने गुण हैं कि वे उन्हें दिखाते जाएँगे और इन्सान को उन्हें पसन्द करने को मजबूर होना पड़ेगा।" हुस्नबानू ने मुस्कराकर कहा।
ज़ीनत भी मुस्कराई। उसने कहा, "तो तुमने एक ही दिन में उनकी सनक समझ ली।"
"समझ ही नहीं ली बहिन, मुझे उन पर तरस भी आया।"
"अरे, यहाँ तक?" ज़ीनत ने आँख उठाकर हुस्नबानू की ओर देखा। अब पहली ही बार उसकी आँखों में छिपी वेदना को उसने देखा—वह देखती ही रह गई। "कितनी देर रहे?"