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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३५

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नौकर ने हारमोनियम लाकर रख दिया। दासी कॉफी और सिगरेट ले आई। कॉफी पीकर नवाब ने हारमोनियम पर हाथ डाला। हुस्न ने बाधा देकर कहा, "छोड़िए भी, बातें ही कीजिए।"

"कोई किस्सा सुनाऊँ या लतीफा? एक से बढ़कर एक याद है, सुनाना शुरू करूँ तो दिन निकाल दूँ!" नवाब ने एक खास अन्दाज़ में हँसते हुए कहा।

"हुजूर में इतने गुण हैं, तभी लाली बेगम आपको इतना चाहती हैं।"

"चाहती हैं! एक रात न जाऊँ तो बेचैन हो जाती हैं, खाना-पीना तर्क कर देती हैं।"

"आज तो वे मछली की तरह तड़फ रही होंगी?"

"तो मैं क्या करूँ, क्या तुम्हारे पास न आऊँ?"

"हक तो उनका है।"

"तुम्हारा भी है।" नवाब ने फिर हारमोनियम पर हाथ डाला। परन्तु हुस्न ने फिर बाधा देकर कहा, "गाना क्या लाली बेगम पसन्द नहीं करतीं?"

"खूब करती हैं।"

"और ज़ीनतमहल?"

"वह बदतमीज है, मगरूर और कूढ़मग्ज़!"

"सुना है, आलिम हैं, शेर कह लेती हैं, अंग्रेज़ी भी जानती हैं।"

"तो इस तोते की तरह पढ़ने से क्या? दिमाग तो है नहीं।"

हुस्नबानू हँस दी। उसने कहा, "समझ गई, उन पर आप रंग चढ़ा ही न सके, आपके सब इल्म वहाँ फेल हो गए।"

"नहीं, नहीं, गाना सुनती है तो सकते की हालत में हो जाती है। मगर दिमाग में कीड़ा है।"

"तो किसी दिन ज़ियारत कर आऊँ, इजाज़त है।"

"जाओ, मगर खुश न होगी।"

"बड़ी हैं,सलाम कर आऊँगी। बड़ी बेगम को भी सलाम करना लाज़िमी है।"

"कौन चीज़ पसन्द है तुम्हें, ख्याल, टप्पा या गज़ल?"

"सभी।"

"कुछ शौक भी रखती हो?"

"सिर्फ सुनने का।"

"तो सुनो", नवाब ने एकबारगी ही गाना शुरू कर दिया। और अब इस खब्ती और सनकी नवाब का चुपचाप गाना सुनने को छोड़ दूसरा चारा न था। हुस्न बैठकर कानों को चीरने वाला गाना सुनने लगी। वह उनकी नई दुलहिन थी, आज यह उसकी नवाब से पहली मुलाकात थी जो अजब ठंडी, बासी और बिखरी-सी हो रही थी। हुस्न एक कोच पर मसनद का सहारा लेकर उठंग गई। नवाब तन्मय होकर हारमोनियम के सुर में मिलाकर चीखते-चिल्लाते रहे। एक के बाद दूसरा गीत, ठुमरी, टप्पा। कभी भी इसका अन्त न होता यदि हुस्न ज़बर्दस्ती उनका हाथ हारमोनियम से न खींच लेती। नवाब ने कहा, "तमाम रात इसी तरह गाता रहूँ और ज़रा न थकूँ।"

"कमाल हासिल है आपको। मगर अब खाना निकालने का हुक्म दीजिए।"