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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३८

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"अयं, तो तुम भी कोई राज़ लिए फिरती हो।"

"मैं भी तो नवाबजादी हूँ बहिन, कोई मामूली औरत नहीं।"

"तो मुझे बताओ।"

"तुम बड़ी बहिन हो। तुमसे कुछ न छिपाऊँगी, छिपाकर क्या करूँगी? अब जीना भी तो तुम्हारे ही सहारे है।"

"जीती रहो बहिन, तुम्हारी बदनसीबी पर तो मुझे बहुत रोना आता है।"

"मेरी बदनसीबी अभी तुमने देखी ही कहाँ है!"

"ऐसे शौहर की बीवी होना ही क्या तुम जैसी हीरे की कनी के लिए कम बदनसीबी है? लंगूर के हाथ में अंगूर की डाली।"

हुस्न की आँखों से टपाटप आँसू टपकने लगे। उन्हें आँचल से पोंछकर उसने सिसकते हुए कहा, "यहीं तक होता बहिन, तो मैं तो अपने को खुशकिस्मत ही मानती।"

"ओह, तो मालूम होता है तुम्हारी नसों में लहू नहीं भरा है, दर्द ही दर्द भरा है।"

"दर्द? नहीं, शर्म।"

ज़ीनत ने भेद-भरी नज़र से हुस्न की ओर देखा। पर मुँह से कुछ नहीं कहा। वह विचार में पड़ गई। हुस्न ने भी यह देखा पर उसने संभलकर कहा, "कहो अब बहिन।"

"सुनो, मेरी शादी को इक्कीस साल हो गए। शादी के वक्त तुमसे कहीं ज़्यादा कमसिन थी। लोग कहते हैं खूबसूरत भी थी, गो तुम-सी नहीं। इन इक्कीस सालों के बाद भी मैं आज वैसी ही कुँवारी हूँ, जैसी शादी की दुलहिन होने की बेला में थी।"

"क्या कहती हो बहिन!" हुस्नबानू की आँखें फट गईं। लेकिन ज़ीनतमहल कहती गई, "इन इक्कीस सालों में मैं एक बार भी नवाब की ड्योढ़ी में गई नहीं और नवाब कभी किसी एक दिन तमाम रात मेरे पास रहे नहीं।"

हुस्नबानू भय से पीली पड़ गई। उसने कहा, "तो...तो..."

लेकिन ज़ीनत कहती गई, "शुरू-शुरू में मैंने इन बातों पर ज़्यादा गौर नहीं किया। मैं एक बदमिज़ाज़ लड़की थी, माँ की लाडली थी। अब्बा की इकलौती थी। वारिस थी। अम्मी को सबसे ज़्यादा प्यार करती थी। अब्बा तो बचपन ही में नहीं रहे थे। अम्मी ने ही मुझे पाला था। हम दोनों, अम्मी और मैं, एक लम्हे को भी जुदा न हुए थे। नवाब का यह रवैया मुझे कुछ भी न खला। मैं अम्मी के पास खुश-खुश रहती रही। नवाब आते, हँस-बोलकर चले जाते। लेकिन धीरे-धीरे उनके गुण दिखने लगे, मैं सब कुछ जान गई। बहुत रोई, सब आँसू बह गए, कलेजा, पानी होकर वह भी बह गया। अब तो रोना चाहूँ तो भी रो नहीं सकती हूँ। रोने से नफरत भी करती हूँ। समझ गई, शौहर नाम की एक शय है, ठोस पत्थर की बनी हुई। जब-तब उसमें ठोकर लग जाती है, चोट खाती हूँ, एक ज़ख्म हो जाता है। खुदा रखे, मैं भी एक नवाबज़ादी हूँ, कोई मामूली औरत नहीं।" इतना कहकर ज़ीनतमहल ने रूखी-सूखी मुस्कराहट हुस्नबानू पर डाली।

पर इससे हुस्न का डर कुछ कम न हुआ। उसने सहमते-सहमते काँपती आवाज़ में कहा—"तो क्या नवाब..."

"नाकाबिले-मर्द हैं," ज़ीनत ने धीरे से कहा और आँखें नीची कर लीं।

"या अल्लाह!" हुस्नबानू दोनों हाथ मलने लगी। फिर उसने पूछा, "बस?"