पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३९

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"नहीं, यह तो सिर्फ एक बात हुई, जिसकी वजह से वह अपनी शादीशुदा बीवियों के साथ रात को नहीं रहते। लेकिन तुमने देखा ही है, वे किसी वक्त किसी के सामने कपड़े भी नहीं खोलते।" "अरे, इसमें भी कोई राज़ है?" "उन्हें कोढ़ की बीमारी है। उनका तमाम जिस्म घिनौने सफेद दागों से भरा है।" हुस्नबानू का सिर चकराने लगा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह बेहोश हो जाएगी। उसका मुँह सूख गया और आँखें पथरा गईं। ज़ीनत ने उसकी यह हालत देखकर कहा, “क्या तबीयत खराब हो गई। ज़रा लेट जाओ बहिन।" "नहीं, ज़रा-सा पानी–बहिन!" ज़ीनत खुद दौड़कर गई और चाँदी के गिलास में बर्फ का पानी ले आई। हुस्न को गोद में भरकर उसने गिलास उसके सफेद होंठों से लगा दिया। पानी पीकर हुस्न ने कहा, “शुक्र है खुदा का!" "खुदा का शुक्र?" “हाँ बहिन, मेरे गुनाहों की मुनासिब सज़ा यहीं मिल गई। अब शायद दोज़ख की आग बच जाऊँ।" “तुम और गुनाह? कौन इस बात पर यकीन करेगा? तुम तो सीरत में फरिश्ता हो, काश तुम मेरी बेटी होती!” “तुम्हारी छोटी बहिन हूँ, कनीज़ हूँ लेकिन यह काफी नहीं तो बेटी ही समझ लो। मैंने माँ का प्यार तो ज़िन्दगी में पाया ही नहीं, आज भी वह पाऊँ तो निहाल हो जाऊँ।" और उसने अपने को ज़ीनतमहल की गोदी में डाल दिया। वह फफक-फफककर रोती रही। ज़ीनत ने उसे छाती से लगाकर कहा, “तुम्हें कलेजे से लगाकर कितनी राहत मिलती है! आज पहली ही बार मिलीं और मुझे ठग लिया बहिन। अब मेरे कलेजे का टुकड़ा होकर रहना। मुझे तो ऐसा मालूम होता है जैसे कहीं से ज़िन्दगी जिस्म में पनपती चली आ रही है, जैसे सूखा खेत फिर हरियाली से लहलहा रहा है। खुदा ने तुम्हें मेरे पास भेजा है कि मैं अपने जले-भुने दिन अब राहत और खुशी में बिता दूं।" "लेकिन लेकिन बहिन, इस बदनसीब की भी दास्तान सुन लो। सुनकर न ठुकराओ तो जानूँ।' "ओह, शायद दिल वहीं कहीं छोड़ आने की बात है। कहाँ किसके पास छोड़ आई हो?" “एक नन्हें-मुन्ने के पास”, हुस्नबानू अब बिखरकर फूट-फूटकर रोने लगी। जैसे उसका बाँध टूट गया हो। जैसे उसका रोम-रोम रो उठा हो। सुनकर ज़ीनत चौंक उठी। “यह क्या कहती हो बहिन?” ज़ीनत ने उसे उठाकर छाती से लगाकर कहा। और तब धीरे-धीरे एक-एक करके अपने दु:ख-दर्द, बदनसीबी की सारी दास्तान उसने सुना दी। सब सुनकर ज़ीनत ने धीरे से पूछा- "बच्चा अब कहाँ है?" "बस इसे राज़ ही रहने दो बहिन, यह मत पूछो। कभी बहुत ही ज़रूरी हो गया तो " 66