सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

डाक्टर अमृतराय की जैसी मान-प्रतिष्ठा थी वैसा ही उनका खानदान भी था। खत्रियों के ऊँचे खानदान में वे गिने जाते थे। ज्यों-ज्यों वे प्रौढ़ होते गए, उनकी मर्यादा बढ़ती ही गई। धन भी उन्होंने काफी कमा लिया था। प्रैक्टिस भी धड़ल्ले से चल रही थी। मोटर, घोड़ागाड़ी, बाग, ज़मीन, मकान सब कुछ था। मिलनसार आदमी थे—इससे मित्रों की भी उन्हें कभी कमी न रही।

दिलीपकुमार कानून पढ़ चुका था। डाक्टर चाहते थे कि किसी प्रतिष्ठित वकील के साथ प्रैक्टिस करे। परन्तु उसका मन प्रैक्टिस में न था। वह राष्ट्रीय संघ का जनरल सेक्रेटरी था। वह चाहता था कि हिन्दू सभा का एक ज़ोरदार नेता बने। नेता बनने के सभी गुण उसमें थे। वह सचोट वक्ता, फुर्तीला और मुस्तैद युवक, निरालस्य और कठिन श्रमी, हँसमुख, मित्रों का सहायक था। राष्ट्रीय संघ में तो उसका अपना एक दल था ही। व्यक्तिगत मित्रों में भी एक समर्थ दल था। अपनी कार्यसिद्धि के लिए ऊँच-नीच,भला-बुरा वह कुछ भी सोचता-समझता नहीं था। अवसर के महत्त्व को वह जानता था, उससे कभी वह चूकता न था। उसके विचार तीखे, भावना तीव्र और आलोचना व्यंग्यपूर्ण होती थी। उसके भाषण से उसकी मित्र मण्डली प्रसन्न होती थी। वह वास्तव में जन्मजात नेता था।

परन्तु डाक्टर अमृतराय पर अब एक भारी और असह्य भार आ पड़ा। बच्चे सब विवाह-योग्य हो गए थे। दिलीपकुमार की आयु छब्बीस वर्ष की हो गई थी। और चारों ओर से उसके लिए सम्बन्ध आ रहे थे। अब उसका सम्बन्ध कहाँ और कैसे किया जाए—एक दिन पति पत्नी में इसी विषय पर चर्चा छिड़ी।

अरुणादेवी ने कहा, "विवाह तो करना ही होगा। चाहे जो भी हो, बिरादरी को तो हम नहीं छोड़ सकते। बच्चे और भी हैं। उसके जन्म का रहस्य किसी पर प्रकट नहीं है। अब वह हमारा ही लड़का है, इसलिए बिरादरी में ही होगा।"

"पर मैं जीती मक्खी कैसे निगलूँगा? मैं तो जानता हूँ कि वह हमारा लड़का नहीं है, एक मुसलमान माता-पिता का पुत्र है। मैं कैसे किसी हिन्दू लड़की को इस धर्मसंकट में डाल कता हूँ! इतना बड़ा छल तो मैं बिरादरी के साथ कर नहीं सकता।"

"तो क्या अब इतने दिन बाद दुनिया को यह बताओगे कि एक मुसलमान के लड़के को तुमने घर में रखा, पाला-पोसा, साथ खाया-पिया? फिर बिरादरी में तुम रह सकते हो? बाकी बच्चों का ब्याह-शादियाँ क्या बिरादरी में हो सकती हैं?"

"क्यों नहीं हो सकतीं, साँच को आँच कहाँ!"

"पर यह तुम्हारा साँच अब तक कहाँ था? नाहक एक झमेला खड़ा हो जाएगा। क्यों दबी आग कुरेदते हो?"

"पर इतना बड़ा झूठ कैसे अपने मुँह से कहूँ। फिर अरुणा यह रक्त का सम्बन्ध है, धर्म का बन्धन है, हम हिन्दू हैं। जानती हो, विवाह में कुलगोत्र-उच्चारण होता है, गोत्रावली और वंशावली का बखान होता है। माता के चार कुल और पिता की चार पीढ़ियाँ बचाई जाती हैं, यह सब इसीलिए तो कि गैर रक्त आर्यों के रक्त में न प्रविष्ट होने पाए। अब हम एकदम म्लेच्छ रक्त को कैसे अपने में खपा सकते हैं? कैसे एक आर्य कुमारी को धोखा देकर झूठ बोलकर म्लेच्छ के बालक से विवाह कर सकते हैं! हमारे तो लोक-परलोक दोनों ही बिगड़ जाएँगे।"