"यह अच्छा है। लेकिन दिलीप से पूछ लिया जाए।
"वह क्या इन्कार करेगा? अभी इतना एडवांस नहीं हो गया।"
डाक्टर ज़रा मुस्करा दिए।
"पूछ लेना अच्छा है।"
"खैर, पूछ लूँगा, तो मैं राय राधाकृष्ण को खत लिखकर मंजूरी दे देता हूँ।"
"जैसा ठीक समझो।"
"फिर किसी दिन तुम जाकर लड़की की गोद भर आना।"
"देखा जाएगा। पर दिलीप से ज़रा पूछ लेते तो।"
"पूछ लूँगा, चिन्ता न करो।” डाक्टर कपड़े पहनकर बाहर चले गए। अरुणा कुछ देर इन्हीं बातों पर सोचती रही।
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परन्तु दिलीप ने इस रिश्ते को बिलकुल अस्वीकार कर दिया। उसने कहा, "वे लोग बिलकुल भ्रष्ट हैं। सबके साथ उनका खानपान है। उनकी लड़की भी अंग्रेज़ी फैशन की गुलाम है। ऐसे लोगों के साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता। न मैं विलायती बीवी पसन्द करता हूँ।" दिलीपकुमार की स्पष्ट बातें सुनकर डाक्टर बड़े असमंजस में पड़े। दिलीप की बात में कुछ अनौचित्य न था। डाक्टर अपनी गृहवधू को स्वयं उसी रूप में देखना चाहते थे जिसमें दिलीप। वे एकाएक कुछ न कह सके। परन्तु उन्होंने दिलीप से बिना ही पूछे राय साहब को स्वीकृति का पत्र लिख दिया था इसका उन्हें बहुत मलाल हुआ। उन्होंने कहा, "दिलीप, मुझसे बड़ी गलती हो गई। मैंने तुमसे बिना पूछे ही रायसाहब को पत्र लिख दिया। अब क्या होगा भला?"
"बहुत बुरा हुआ बाबूजी! उनसे अब भी सब बातें साफ-साफ कही जा सकती हैं। वे बड़े आदमी हैं, सज्जन हैं, सब बातें समझते हैं। नाराज़ न होंगे, प्रसन्न ही होंगे।"
"लेकिन बेटे, एक बार फिर सोच लो। यह तो तुम्हीं कह चुके हो कि वे सज्जन हैं, ऐसे सम्बन्ध मिलने सुलभ नहीं।"
"परन्तु बाबूजी, मेरे विचार आपको मालूम हैं। मैं सीता-सावित्री का आदर्श पसन्द करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि सीता-सावित्री के वंश की ही कोई लड़की आपके चरणों का आशीर्वाद प्राप्त करे।"
विनम्रता और दृढ़ता दिलीप का स्वभाव था। डाक्टर उसकी विनय और दृढ़ता से निरुत्तर हो गए। उन्होंने धीरे से कहा, “एक बार अपनी माँ से भी तो सलाह कर लो।"
"माँ को जानता हूँ बाबूजी, वे तो मेरे ही धर्म को मानती हैं। मेम को बहू बनाना कभी पसन्द नहीं करेंगी।"
"पर बेटे, वेशभूषा ही से क्या, रायसाहब की पुत्री रूप, गुण और शील में अद्वितीय है। देखोगे तो पसन्द करोगे।"