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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/४६

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"लेकिन रूप, गुण और शील से क्या-आदर्श और विचार भी तो उसके हमारे ही समान होने चाहिए, आचरण और भावना भी तो हमारे ही अनुकूल होनी चाहिए।"

"लेकिन भैया, आज के स्वतन्त्रता और समानता के युग में जो तुम इतनी कट्टरता के विचारों को लिए फिरते हो सो क्या ठीक है?"

"मैं आपके समान विद्वान् नहीं बाबूजी। पर देखता हूँ कि मैं कोरा कट्टर ही नहीं हूँ, कुछ विचार भी सकता हूँ, और आदर्श और संस्कृति में तो कट्टरता कायम रहनी ही चाहिए। नहीं तो फिर जातीयता कहाँ रह सकती है।"

"जातीयता न रहने पर भी तो काम चल सकता है दिलीप।"

"कहाँ, आपने हिटलर को देखा, मुसोलिनी को देखा, किस तरह जातीयता के नाम पर ही वे मर मिटे। अंग्रेज़ हैं, फ्रेंच हैं, यूरोप के अन्य राष्ट्र हैं, एक जातीयता के नाम पर, एक जातीयता के बल पर ही दुनिया में जीते हैं। हम हिन्दू दरिद्र हैं, गुलाम हैं। हमारी आर्थिक और राजनीतिक दासता ने शताब्दियों से हमें पंगु बना कर रखा है, इसी से गुणवान्, विद्वान्, धर्मात्मा धीर-वीर रहते हुए भी हम दास-भाव से मुक्त नहीं हो पाते; पराजित ही रहते हैं। अब एक जातीयता ही तो है-जिसके बल पर हम सब एक हो सकते हैं, संगठित होकर अपनी दासता की बेड़ी काट सकते हैं।"

"सो तो है, परन्तु इससे हिन्दू लोगों के बीच तो दीवार खड़ी हो जाएगी। हिन्दू तो पहले ही से छुआछूत के कारण दूसरी जातियों से अलग-अलग रहते आए हैं-अब तुम्हारे इन विचारों ने उनके मन में घर कर लिया तो वे अपने पड़ोस के प्रत्येक उस आदमी के शत्रु और गैर हो जाएँगे जो हिन्दू नहीं है। यह क्या अच्छा होगा दिलीप?"

"बहुत अच्छा होगा, हम संगठित होंगे, सबल होंगे, स्वस्थ होंगे, सम्पन्न होंगे तो दुनिया के लोग मित्रता का हाथ हमारे सामने फैलाएँगे।"

"भला ऐसा कैसे हो सकता है?"

"क्यों नहीं हो सकता? देखा नहीं आपने, इस युद्ध में अंग्रेज़ों और अमेरिकनों ने लाल रूस से कैसी दोस्ती गाँठी थी? कहिए, इन तीनों का कहीं भी मेल खाता है? बाबूजी, शक्ति ही सब कुछ है। हम शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, और यह काम संगठित होने से होगा। और संगठन संस्कृति के द्वारा ही हो सकता है। इसी से बाबूजी, मैं हिन्दू संस्कृति का इतना पक्ष लेता हूँ।"

"तो कदाचित् तुम्हीं ठीक होगे भाई। पर मैं तो समझता हूँ, अब तो दुनिया के सब मनुष्यों को परस्पर समान भाव से रहना चाहिए।"

"समान होने ही के लिए हम दासता की बेड़ियों को काटना चाहते हैं। जो गिरे हुए हैं, उन्हें तो समान होने के लिए ज़रा उठना ही होगा, बाबूजी!"

डाक्टर ने हँसकर दिलीप की पीठ ठोकी। हँसते-हँसते कहा—"तुमसे बहस करना मेरे बूते की बात नहीं, दिलीप! लेकिन जा, इस मामले में अपनी माँ से और बात कर ले। तभी तो अन्तिम निर्णय होगा-उसी की सूचना मैं रायसाहब को दूंगा।"

"बहुत अच्छा," कहकर दिलीप चला गया। डाक्टर देर तक इस गुत्थी को सुलझाने में उलझे रहे। जिसकी नसों में शत-प्रतिशत मुस्लिम रक्त बह रहा है, वह ऐसा कट्टर हिन्दूधर्म का समर्थक है—यह सोचकर डाक्टर को हँसी आ गई।