सोने की डलियाँ बाँटते हैं। यद्यपि ऐसा कोई गवाह न था जिसे कोई डली दी गई हो।
योगिराज ने जमना-तट पर निगमबोध पर आसन जमाया था। पर नगर में आने, सवारियों का शौक करने में कोई उज्र न था। लोगों की मनोकामना की पूर्ति करना उनका व्रत था। इसी व्रत को पालन करने के लिए वे किसी की मनोकामना विफल नहीं करते थे। यद्यपि योगिराज केवल पवन-भक्षण करके ही रह सकते थे–महीनों, वर्षों, पर लोग मेवा, रबड़ी, खोया, मिठाई, फल, दूध, पकवान ले आते थे। उनकी मनोकामना ही यह होती थी कि भगवान् भोग लगाएँ। इसी से योगिराज, "भक्त, तेरी ऐसी ही मनोकामना है तो ला", कहकर हँसते-हँसते सब माल चट कर जाते–जो बच रहता उसे चेले-चाँटे साफ करते थे, जो हरदम उन्हें घेरे रहते थे।
मन्दी का ज़माना था। हज़ारों-लाखों लोग बेकार फिरते थे। उन सबके लिए योगिराज एक दिलचस्प आश्रय बन गए थे। जब वे नगर में आते, दस-बीस जन उन्हें घेरे ही रहते थे। जन कोरे भिखमंगे—भुक्कड़, मूर्ख और आवारा ही न होते थे–वकील, बैरिस्टर, प्रोफेसर और अन्य गण्यमान्य पुरुष भी होते थे। अधिकांश को कीमियागिरी की ही चाट होती थी। वे आशा करते थे कि शायद कोई लटका हाथ आ जाए।
दिलीप भी उनमें एक था। कहना चाहिए, भक्तों में उसी का नम्बर प्रथम था। बहुत प्रथम से वह नित्य प्रात:काल जल्द उठकर निगमबोध पर जाता, कसरत करता, स्नान-पूजा करता, राष्ट्रीय संघ के दल में मिलकर समाज जुड़ाता, कभी-कभी मीटिंग होती। पर्व-त्यौहार पर स्वयंसेवक दल को लेकर वह जनसेवा करता, वह स्वयंसेवक दल का कप्तान था। बहुधा वह आधा दिन बीत जाने पर घाट से घर आता। परन्तु अब तो वह रातभर योगिराज की सेवा में रहने लगा।
इन दिनों अरुणादेवी कुछ अस्वस्थ रहती थीं। काफी कमज़ोर हो गई थीं। एक दिन अचानक प्रात:काल दिलीप योगिराज को घर ले आया। सारे घर में धूम मच गई। योगिराज को बैठक में बैठाकर वह माँ के पास आकर बोला, "माँ, योगिराज आए हैं। वे तुम्हें दृष्टिमात्र से अच्छा कर देंगे। बुलाता हूँ। ज़रा ठीक-ठाक होकर बैठो।" उसने कमरे में इधर-उधर दृष्टि डाली।
अरुणा को यह सब पाखण्ड पसन्द नहीं था। उसने कहा, "उन्हें क्यों ले आया तू पागल! जा, जा, कुछ खिला-पिलाकर विदा कर; यहाँ लाने का कोई काम नहीं है।"
"काम क्यों नहीं है, माँ, वे एक दृष्टि से तुम्हें चंगा कर देंगे।"
"चल रहने दे, ऐसे पाखण्ड बहुत देखे हैं मैंने, एक दृष्टि से रोग चंगा कर देंगे! और तेरे पिता जो इतने बड़े डाक्टर हैं, सो यों ही।
"डाक्टरी की बात दूसरी है माँ, योगविद्या तो चमत्कार है।"
"तो तू ही उस चमत्कार से लाभ उठा।"
"नहीं, माँ, एक मिनट के लिए उन्हें ले आने दो, देखो तो, अभी तुम चंगी हो जाओगी।"
"पागल हो गया है तू दिलीप!"
"पागल ही सही। अब तो मैं उन्हें ले ही आया हूँ।"
"तू एक ही ज़िद्दी है। किसी की सुनेगा थोड़े ही। जो तेरे जी में आए सो कर।" अरुणा