पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/५६

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"पूछ बहिन", योगिराज ने स्नेह-मिश्रित स्वर में कहा। “मैने सुना था कि आप बालकृष्ण का रूप धारण करते हैं। बहुतों ने आपके बालकृष्ण रूप में दर्शन किए हैं-सो क्या बात है भला, बताइए, आप पर प्रकाश भी नहीं पड़ता।" "बहुत साधारण बात है। मैं एक गैस का हंडा मँगाकर बीच में रख लेता हूँ। भक्तगण चमत्कार देखने उसके चारों ओर बैठ जाते हैं। सबकी नज़र मेरे ऊपर रहती है। बालकृष्ण का वेष मैं धारण पहले ही कर लेता हूँ। लोगों से रोशनी तेज़ करने को कहता हूँ। एक-दो आदमी हण्डे में हवा पम्प करते हैं। रोशनी तेज़ होती है। सबकी आँखें स्वाभाविकतया ही हण्डे पर जम जाती हैं। मैं बराबर तेज़-तेज़ और तेज़ कहता रहता हूँ। वे हवा पम्प करते रहते हैं। एकाएक मैं कहता हूँ—देखो। तेज प्रकाश के बाद आँखें मुझ पर उठ जाती हैं। प्रकाश के बाद एकदम देखने से वे मुझे कुछ छोटा तथा अँधेरे में देखते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। बस, यही वह चमत्कार है।" "बड़ी चालाकी करते हैं आप!" करुणा ने कहा। "लेकिन यह इतनी-सी बात ये पढ़े-लिखे भौंदू नहीं समझ सकते।" माता का संकेत पाकर करुणा चाय लेने चली गई। अरुणा ने हँसकर दिलीप से कहा- “दिलीप, तेरे योगिराज ने एक ही दृष्टि में मुझे अच्छा कर दिया भैया!" दिलीप बहुत झेंप रहा था। योगिराज पर उसे गुस्सा आ रहा था। पर योगिराज ने उसे खींचकर छाती से लगा लिया। इसके बाद उस परिवार में मिलकर खूब चाय-टोस्ट उड़ाकर योगिराज अपने आश्रम को गए। 16 राय राधाकृष्ण कानपुर में प्रैक्टिस करते थे। मस्त जीव थे। दबंग भी पूरे थे। अदालत में उनकी धाक थी। उन्हें पहले तो डाक्टर अमृतराय का विवाह की स्वीकृति का पत्र मिला, पीछे इन्कारी का। उसमें केवल इतना ही लिखा था-“मैं मजबूर हो गया और शर्मिन्दा भी हूँ-परन्तु आप क्षमा कर देंगे ऐसी आशा है।” पत्र पढ़कर रायसाहब ज़रा चिन्ता में पड़ गए। परन्तु उन्होंने तुरन्त ही अपना मन स्थिर कर लिया। उसी शाम को उन्होंने अपनी पुत्री माया को बुलाकर कहा, "कल शनिवार है, कोर्ट आधे ही दिन का है। मुझे कुछ ऐसा काम भी नहीं है बस एक घण्टे में आ जाऊँगा। हम लोग दो बजे की गाड़ी से ज़रा दिल्ली चलेंगे। सब ठीक-ठाक कर रखना। "हम लोग कौन?" माया ने हँसकर कहा। “मैं और तू।” रायसाहब ने भी हँसकर जवाब दिया। “ममी नहीं?" "न, जानती है तीन टिकट खरीदने पड़ेंगे उसके लिए।" "तीन क्यों?" “देखती नहीं, तीन आदमियों के बराबर वज़न है उसका। आजकल चैकिंग कितना