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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/५५

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करुणा सब देख-सुनकर मुस्करा रही थी।

अब एकाएक अरुणा ने कहा, "ज्यादा तंग न कर सुशील", फिर योगिराज को सम्बोधन करके कहा, "घर में तो सब कुशल है भैया, माताजी हैं न, बहुत दिन से देखा नहीं।"

योगिराज की बोलती बन्द हो गई। वे एकटक अरुणादेवी को देखते हुए बोले, "तो क्या आप..."

"तुम्हें मैं भूल जाऊँगी भैया? गोद में मैंने ही न तुम्हें खिलाया था। भूल गए–राय माधोदास...तुम्हारे कान कौन ऐंठता था–बताओ भला।" अरुणा सरल भाव से हँस दी। योगिराज ने तुरन्त उठकर अरुणादेवी के चरणों को स्पर्श कर प्रणाम किया।

"पहचान गया दीदी, माँ तो आपको नित्य ही याद करती रहती हैं। पर, आप जो वहाँ से आईं तो फिर उधर का रुख ही नहीं किया। आपके कान खींचने को मैं कैसे भूल सकता हूँ। मैं भी तो आपकी नाक खींचता था।" योगिराज खुलकर हँस दिए।

"अच्छी तो हैं माताजी?"

"कहाँ, दमे की बीमारी ने खोखला कर दिया है। उम्र भी तो खिंच गई है।"

"मकान वही है?"

"न, वह तो पिताजी रहन रख गए थे। तभी बिक गया था। किराए के मकान में हैं।"

"ललिता तो अब बहुत बड़ी हो गई होगी।"

"बी. ए. फाइनल किया है।"

"ब्याह हुआ?"

"कहाँ? उसी की चिन्ता में तो माँ घुल रही है। खर्च का बन्दोबस्त ही नहीं होता इसी से तो यह पाखण्ड करना पड़ा।"

"भला इतना पाखण्ड क्यों किया? भले घर के लड़के होकर?"

"तो ये भले घर के लड़के बिना पाखण्ड थोड़े ही बस में आते हैं।"

दिलीप हैरान था। वह कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। उसे योगिराज पर गुस्सा भी कम न था। सुशील मुस्करा रहा था। अब उसने और भी बनकर कहा, "तो महात्माजी, आजकल आप पवन ही भक्षण करते हैं या और भी कुछ?" योगिराज ने बिना झेंपे और भी बनकर कहा, "नहीं बच्चा, हम तो भक्त की मनोकामना पूर्ण करने को सब कुछ पा लेते हैं। सबके मन की जानते हैं। घट-घट व्यापक हैं हम बच्चा!"

"सत्य वचन महाराज, तो बताइए–इस समय हमारी क्या मनोकामना है?"

"यही कि तुम हमें टोस्ट, मक्खन, चाय, दालमोठ, नमकीन, मिठाई का भोग लगाना चाहते हो; सो बच्चा शास्त्र में लिखा है, शुभस्य शीघ्रम्, अब विलम्ब क्यों?" करुणा खिलखिलाकर हँस पड़ी।

सुशील ने कहा, "ले आ करुणा, महात्माजी आज मनोकामना पूर्ण करने पर तुले बैठे हैं। देर करेगी तो मार बैठेंगे।"

करुणा ने हँसते-हँसते कहा, "लेकिन एक बात बतलाइए।" किन्तु अरुणादेवी ने बाधा देकर कहा, "पहले चाय ले आ तब बात पूछना।"

"नहीं, पहले पूछूँगी।"