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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/५९

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यह तो इतनी बड़ी प्रवंचना है कि...परन्तु संभवत: वह ब्याह तो होगा ही नहीं।

सब लोग घर आए। अरुणादेवी ने माया को उठाकर गोद में बिठा लिया। करुणा तो खुशी से नाचने लगी। घर-भर में उत्सव-सा मच गया। करुणा दौड़ी-दौड़ी गई दिलीप के कमरे में। वह कहीं बाहर से आकर कपड़े उतार रहा था। उसने कहा–"भैया, भाभी आई हैं, पता है तुम्हें?"

"कौन भाभी?"

"अरे वही कानपुरवाली, और कौन–बड़ी भाभी।"

"जा भाग, बकवास न कर।"

करुणा ने हँसते-हँसते कहा, "अच्छा चलो, देखना चाहो तो मैं अभी दिखला सकती हूँ–माँ के पास बैठी हैं।"

दिलीप ने करुणा को बाहर धकेलकर कमरा भीतर से बन्द कर लिया। पर करुणा का उत्साह मन्द न पड़ा। वह सुशील के पास जाकर बोली–"सुशील भैया, भाभी आई हैं, देखोगे?"

सुशील मुस्कराकर रह गया। उसने कहा, "बड़े भैया को दिखा। मैं देखकर क्या करूँगा?"

"बड़े भैया ने तो सुनकर मुझे धक्का देकर कमरे से निकाल दिया और कमरा भीतर से बन्द कर लिया।"

सुशील हँसने लगा। उसने कहा–"महात्माजी जो ठहरे, पर फिक्र न कर, कमरा फिर खुल जाएगा। तब तक तू जाकर भाभी की खूब खातिरतवाज़ो कर। वे लोग इंग्लैंड-रिटर्न हैं–तुझे कहीं गँवार का खिताब न दे बैठे।"

"तो हर्ज क्या है–भाभी जब मेरे पास रहेंगी, तब मैं गँवार थोड़े ही रहूँगी। कल्चर्ड बन जाऊँगी।"

वह हँसती हुई भाग गई।

17

डाक्टर ने सब बातें साफ-साफ स्पष्ट शब्दों में रायसाहब को कह दीं। उन्होंने यह भी कहा, "माया जैसी बहू को पाकर हम दोनों–मैं और मेरी पत्नी-धन्य होंगे। परन्तु जब तक दिलीप विरोध करता है, मैं लाचार हूँ। ज़बर्दस्ती तो करना ठीक नहीं है।"

रायसाहब ने स्वयं दिलीप से बात की। पिता की आज्ञा से आकर दिलीप ने रायसाहब को प्रमाण किया। रायसाहब ने उठकर उसे छाती से लगाकर कहा–

"आओ, बेटे, मैं तुमसे साफ-साफ बातें करना चाहता हूँ। दिल खोलकर बात करो। मेरा अभिप्राय तो तुम्हें मालूम ही है–अब कहो, तुम्हें आपत्ति क्या है?"

"बाबूजी, यह सिद्धान्त का प्रश्न है।"

"कैसे सिद्धान्त का?"