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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६०

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"मैं हिन्दू सभ्यता का कट्टर पक्षपाती हूँ। इसलिए मैं ऐसा कोई काम करना नहीं चाहता जो मुझे हिन्दू आदर्शों से विचलित करे।"

यह तो अच्छा ही है, हम लोग हिन्दू ही तो हैं। माया की माँ का तो कहना ही क्या? बड़ी आर्थोडाक्स (धर्मात्मा) हैं। अपने धर्म, वंश और रक्त का तो हमें अभिमान होना ही चाहिए।"

"बस यही बात है बाबूजी, मैं साधू-महात्मा का जीवन व्यतीत करना नहीं चाहता, परन्तु मैं ऐसी पत्नी भी नहीं पसन्द करता जिसकी शिक्षा-दीक्षा हिन्दू आदर्शों के विपरीत पश्चिमी सभ्यता में हुई हो।"

"पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव सर्वदा खराब ही रहता है, ऐसा तुम्हारा मत है?"

"खराब-अच्छा मैं कुछ नहीं कहता; पर दोनों में पूरब-पश्चिम का अन्तर है?"

"तो इससे क्या! तुम सुबह पूर्व में मुँह करके संध्या करते हो, शाम को पश्चिम में।"

"पूर्व और पश्चिम के विचार, संस्कृति, आचरण सभी में अन्तर है। मैं पाश्चात्य संस्कृति से घृणा करता हूँ। मैं उन सब लोगों से घृणा करता हूँ जो अपने धर्म, संस्कृति और सामाजिक जीवन को छोड़कर पाश्चात्य लोगों की नकल करते हैं।"

"इस प्रकार घृणा करना तो अच्छी चीज़ नहीं है दिलीप, खासकर तुम जैसे सुशिक्षित युवक को ऐसा नहीं करना चाहिए। तुम जानते ही हो-मानव-जीवन के गुण-दोष, जो सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। सभी जगह हैं। हिन्दू संस्कृति भी उससे मुक्त नहीं।"

"मैं तो बाबूजी, आपसे बहस करना ही नहीं चाहता हूँ।"

"तुम यदि अपनी हिन्दू संस्कृति को केवल प्यार करते हो तब तक तो बहस की बात नहीं थी, पर जब तुम दूसरों से घृणा करते हो तब तो बहस करनी होगी। खासकर उस हालत में जबकि जिन्हें तुम घृणा करते हो वे तुम्हें प्यार करें।"

"बहस से कुछ लाभ न होगा।"

"क्यों नहीं होगा? क्या तुम विवेकी युवक नहीं हो? प्रगतिशील नहीं हो? औचित्य को समझते ही नहीं।"

"मैंने तो सभी बातों पर विचार कर लिया है।"

"तो भैया, जो लोग पाश्चात्य संस्कृति में रहते हैं वे भी अपनी संस्कृति का आदर करते हैं। मनुष्य का ऊपरी रूप ही तो सब कुछ नहीं है।"

दिलीप ने अविश्वास की हँसी हँसकर कहा, "हो सकता है। मैंने तो पहले ही कह दिया था कि मैं बहस नहीं करता।"

"तुम चाहते क्या हो आखिर? विवाह तो तुम करोगे ही।"

"ज़रूर करूँगा, पर मेरा आदर्श सीता और सावित्री है। पाश्चात्य जीवन में डूबी हुई किसी लड़की से मेरी पटरी नहीं बैठ सकती। मेरा भी जीवन दु:खी होगा, उसका भी जीवन नष्ट होगा। इस सम्बन्ध में ज़ोर-जुल्म व्यर्थ है।"

ज़ोर-जुल्म की बात मैं नहीं कहता। पर तुम यदि कहते हो कि शील, गुण, प्रेम और त्याग की भावना उन लड़कियों में होती ही नहीं जो पाश्चात्य जीवन में रहती हैं, तो तुम्हारी भूल है–पहाड़ जैसी भूल। क्या पाश्चात्य जीवन मानवीय तत्त्वों से एकदम रहित