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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६३

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पास से उठ आए, उसे तो वे बिलकुल ही भूल गए। इस समय तो उनकी अपनी सम्पूर्ण चेतना माया के दुःख से ओत-प्रोत हो गई। माया का वह सूखा कण्ठ-स्वर सुनकर उन्होंने एक निरीह असहाय-से होकर बेटी की ओर देखा, फिर कहा, "गाड़ी तो अब तीन बजे मिलेगी। उन्होंने जेब से घड़ी निकालकर देखी, फिर कहा, "अभी तो बारह ही बजे हैं।"

"क्या अभी, इसी क्षण नहीं चला जा सकता बाबूजी?" माया ने खोखले स्वर में कहा।

"नहीं बेटा, ऐसा कभी नहीं हो सकता। क्या कहेंगे डाक्टर? हम क्या उनसे नाराज़ होकर यहाँ से जा सकते हैं? नहीं, नहीं, ऐसा तो होना ही नहीं चाहिए।"

परन्तु पुत्री को पिता का दर्द दिख गया। उसने सूखे होंठों में हँसी भरकर-जैसे सारी वेदना, सारे अपमान को एक ओर धकेलकर कहा, "आपने मुझे कचालू खिलाने का वादा किया था। चलिए, ज़रा देखू कैसी होती है कचालू की चाट।"

पिता तो पहले ही पुत्री का सूखा कण्ठ-स्वर देख चुके थे। अब सूखे होंठों पर हँसी देखकर उन्होंने कहा, "हाँ, हाँ–लेकिन अभी नहीं, भोजन से निबटकर, तीसरे पहर। अभी तू जा, करुणा से गप्प उड़ा। मैं तब तक डाक्टर से थोड़ी बात कर लूँ।" वे मुड़कर जाने लगे।

माया ने "तो फिर आप शायद वह गाड़ी न पकड़ सकेंगे।"

"देखा जाएगा, मैं ज़रा बात तो कर लूँ!"

और वह कभी न हारने वाला अजेय योद्धा जैसे लड़खड़ाता हुआ, बाहर निकल गया। बेटी का बाप होना भी कैसा दुस्सह है, वह उसने प्रत्यक्ष देख लिया।

19

उसी दिन तीसरे पहर, दिलीप बाहर जाने को तैयार था कि माया ने अयाचित रूप से उसके कमरे में आकर कहा, "आप क्या जल्दी में हैं?"

क्षण-भर के लिए दिलीप स्तम्भित रह गया। उसे देख ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे आज पहली बार उसने एक स्त्री-मूर्ति देखी है, जो अलौकिक है, अद्भुत है। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके हृदय के गहन अन्धकार में एकबारगी ही सूर्यकिरण फूट उठी। जीवन में कभी न अनुभव में आई हुई भावना ने उसे जकड़ दिया। जैसे उस मूर्ति के दर्शन-मात्र से ही उसका सारा धैर्य, पौरुष, सम्पूर्ण दृढ़ता गलकर बह गई। वह जैसे अब तक एक चट्टान था, और अब क्षण-भर ही में उस दर्शन का स्पर्श पाकर रजकण हो गया।

उसने हकलाते हुए कहा, "हाँ, नहीं-आप-आप आइए!"

माया ने दो कदम आगे बढ़कर बिना ही किसी भूमिका के कहा, "ममी ने आपको देने के लिए यह घड़ी मुझे दी थी।" उसने वह घड़ी सामने टेबल पर रख दी।

दिलीप को ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे प्राणवायु का एक झोंका आकर उसे आप्यायित कर गया। उस शारदीय शोभा की मूर्ति के सान्निध्य में वह खो गया। उसकी समझ ही में नहीं आया कि क्या जवाब दे। वह घबराया-सा एकटक माया के मुख को ताकता रहा।

क्षण-भर माया रुकी रही और फिर वह मुँह फेरकर चल दी। दिलीप ने कहा,