पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६९

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से खड़े रहे। केवल अरुणादेवी माया का सिर गोद में लेकर व्यस्त भाव से बैठ गईं। करुणा और भी परेशान होकर दौड़-धूप करने लगी। यूडीक्लोन ले आई। और भी उपचार हुए। अरुणादेवी ने सभी को विदा कर दिया। किन्तु करुणा किसी तरह नहीं गई। अब कैसा जी है, भाभी? वह बार-बार पूछती रही। कोई भी किसी तरह उसका 'भाभी' कहना न रोक सका। और अब, न जाने किस सूक्ष्म अनुबन्धन के सहारे यह शब्द किन-किन भावों- अनुभावों से घुल-मिलकर माया के तृषित कणों में सुधा बरसाने लगा-रक्त की प्रत्येक बूंद से सिहरन पैदा करने लगा। बहुत रात बीतने पर माया ने बड़ी कठिनाई से अरुणादेवी को विदा किया। परन्तु करुणा किसी तरह न गई। वह वहीं-माया के पास, उसी पलंग पर, माया के गले में अपने कोमल भुज-मृणाल का बन्धन डालकर सो रही। दो स्त्री-हृदय पास-पास धड़क रहे थे दोनों अम्लान, अनाघ्रात, कौमार्य के पुनीत तत्त्व से ओत-प्रोत-शुद्ध सरल प्रेम से लबालब। किन्तु एक ज्ञात दूसरा अज्ञात। केवल एक ही पौरे आगे बढ़ने से दोनों में इतना अन्तर पड़ गया था - इन्हीं कुछ क्षणों में। 22 माया की वह मर्मपीड़ा, और दिलीप का औद्धत्य सभी ने देख-समझ लिया। इससे डाक्टर अत्यन्त मर्माहत हुए। अरुणादेवी भी विचलित हुईं। उसी रात पति-पत्नी में बातें अरुणा ने कहा, “तुम तो शायद कुछ भी नहीं समझते।" “क्या?" "लड़की को कितना दु:ख हुआ है! मैं स्त्री ज़ात हूँ-उसका दु:ख समझ गई हूँ। मानती हूँ, उसे हमारे द्वार पर इस तरह न आना चाहिए था-पुरानी परिपाटी अच्छी थी। परन्तु उसके इस आने को मैं निन्द्य भी नहीं समझती। एक ही दृष्टि में मैंने उस रत्न का मूल्य समझ लिया, यदि वह तिल-भर भी यह सन्देह मन में करती कि वह रिश्ता होगा ही नहीं तो वह इधर कदम भी नहीं रखती। वह जैसी सरल है वैसी ही मानवती भी है। वह स्वयं ही विदुषी है, समझदार है। फिर उसके पिता साथ हैं। कितने सत्पुरुष हैं, कितने महापुरुष हैं! मैंने तो ऐसे साधु-सज्जन कोई देखे नहीं। अब क्या हमारे द्वार से हमारी लक्ष्मी सूनी लौट जाएगी? यदि ऐसा हुआ तो हमारी मर्यादा गई समझो। मैं तो इस शर्म को ढोकर ज़िन्दा न रह सकूँगी।" "लेकिन मैं करूँ क्या? तुम्हीं कहो। दिलीप से मैं सब कुछ कह-सुन चुका, तुम भी कह चुकीं। वह अपने मन का है-देखती ही हो। क्या मैं उसके साथ ज़बर्दस्ती करूँ। ज़बर्दस्ती करने पर...वह घर से भाग न जाएगा, इसकी क्या गारंटी है? फिर इस तरह भैंसा-बैल की अनमेल जोड़ी, रस्सी से ज़बर्दस्ती बाँध देने से कहीं गृहस्थी की गाड़ी चलती है? तुम्हीं कहो।"