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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/७०

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"नहीं चलती, दिलीप से ज़बर्दस्ती करने की हमें ज़रूरत नहीं। वह हमारा लड़का नहीं है। पराया है, विधर्मी है। दूसरे वह क्या है? उन्हें उसका सच्चा परिचय दे दीजिए–उसकी सब ज़मीन-जायदाद उसे दे-दिवाकर यहाँ से उसका काला मुँह कीजिए। हमसे उसका कुछ सरोकार नहीं है।"

"ज़रा धीरे बोलो। यह तुम क्या कह रही हो! दुनिया पर जब यह बात खुलेगी तो दुनिया क्या कहेगी! सोचो तो। और स्वयं दिलीप की क्या हालत होगी! देखती हो–विचित्र ढंग से वह साम्प्रदायिक आदमी बन गया है–एक कट्टर हिन्दू की तरह रहने में वह अपनी शान समझता है–अब जो उसे यह पता लगेगा तो अजब नहीं पागल हो जाए या जान दे दे। फिर माया का इससे क्या भला होगा! उसका दु:ख तो और भी बढ़ जाएगा। उसका उपाय क्या है?"

"उसका भी उपाय है–मैंने सोच-समझ लिया है।"

"कौन उपाय?"

"मैं अपने सुशील से माया का ब्याह करूँगी। तुम रायसाहब से कह दो। लड़की मेरे घर से सूनी न जाएगी।"

डाक्टर कुछ देर चुप रहकर बोले, "यह क्या ठीक होगा? और सुशील ही क्या राज़ी हो जाएगा?"

"सुशील तो मेरे पेट का पैदा हुआ लड़का है!"

"तुमने क्या उससे बातें की हैं।"

"नहीं कीं। पर इससे क्या? वह 'ना' न कहेगा।"

डाक्टर ने सिर खुजाकर कहा, "अच्छा, बिरादरी में जो एक बवंडर खड़ा होगा?"

"दिलीप से ब्याह करते तो क्या न होता?"

"शायद होता।"

"तो अब भी होने दो। क्या होती है बिरादरी! मैं परवाह नहीं करती!"

डाक्टर ने सन्तोष प्रकट किया। पत्नी के प्रस्ताव से सहमत होते हुए उन्होंने कहा :

"अच्छी बात है, मैं रायसाहब से सुबह बात करूँगा।"

"बात करके ही रह जाना न होगा। सगाई और गोद की रस्म भी कल ही को करनी होगी। अब मैं कच्ची बात थोड़े ही करूँगी।"

"सुशील से ज़रा पूछ तो लो।"

"सुशील को मेरे ऊपर छोड़ दो।"

"तो तुम जानो।"

"डाक्टर एक प्रकार से आश्वस्त होकर सो गए। सुबह जब रायसाहब ने चलने का उपक्रम किया तो डाक्टर ने नम्रतापूर्वक कहा, "जाना तो आज न हो सकेगा आपका, सुशील की माँ की यही इच्छा है।" डाक्टर जैसे इस बार दिलीप की माँ कहना ही भूल गए।

रायसाहब ने अचकचाकर कहा, "क्यों, क्या बात है? जाना तो अवश्य होगा, मेरे कोर्ट में केस हैं।"

"यहाँ के केस को पहले निबटाना ज़रूरी है!" डाक्टर ने रसिकता से कहा।

"ज़रा साफ-साफ कहिए, तो समझूँ।"