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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/७१

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"सुशील की माँ चाहती है, सगाई की रस्म आज ही के शुभ मुहूर्त में हो जाए। वह बिटिया को बिना गोद भरे सूना जाने देना नहीं चाहती।"

"लेकिन दिलीप की तो इच्छा..."

"दिलीप की इच्छा न हो। मैं सुशील के लिए रिश्ता स्वीकार करता हूँ।"

"सुशील के लिए?" हठात् रायसाहब को दिलीप का वह वाक्य याद आ गया, "बिरादरी का भी सवाल है।" उनका खून गर्म हो गया। पर उन्होंने संयत होकर कहा, "यह तो बात ही दूसरी है, इस पर मुझे विचार करना होगा–मैं विचारकर आपको लिखूगा।"

डाक्टर को स्वप्न में भी गुमान न था कि रायसाहब इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देंगे। रायसाहब की बात सुनकर वे भौंचक-से उनका मुँह ताकते रह गए। क्षण-भर उनके मुँह से बोली न निकली। फिर कुछ संभलकर उन्होंने कहा, "परन्तु आपका इस तरह जाना तो ठीक नहीं है।"

"जो ठीक नहीं है, उसे आप इस तरह ठीक करना चाहते हैं? मैं उसे ठीक नहीं समझता।" रायसाहब एक फीकी हँसी हँस दिए। फिर डाक्टर के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, "आप मेरे पुराने दोस्त हैं। हम दोनों में फारमेलिटी की ज़रूरत नहीं। आप दिल में ज़रा भी मलाल न लाइए। सच पूछिए तो मुझे दिलीप की स्प्रिट पसन्द है, और मैं उसकी कद्र करता हूँ। इसलिए आप बिलकुल संकोच न करें। हमारे-आपके पुराने सम्बन्ध वैसे ही कायम रहेंगे जैसे अब तक रहते आए हैं। इतनी-सी बात पर कुछ अन्तर थोड़े ही पड़ जाएगा!"

उन्होंने डाक्टर का प्रगाढ़ आलिंगन किया। डाक्टर ने सूखे मुँह से पत्नी के पास जाकर कहा, "रायसाहब तो रुकने को राजी नहीं होते–जा रहे हैं।"

"वाह, जा कैसे सकते हैं, मैं जाने दूंगी तब न!"

"तो तुम उनसे कहो।"

"चलो, कहती हूँ", अरुणा चाभियों के झब्बेवाला साड़ी का पल्ला कन्धे पर डालकर, जिस कमरे में रायसाहब सामान बाँध-बूंध रहे थे, उसकी बगल में किवाड़ की ओट में आ खड़ी हुई। डाक्टर ने कहा, "सुशील की माँ आपसे कुछ कहने आई हैं।" इस समय भी डाक्टर पत्नी को दिलीप की माँ न कह सके। रायसाहब ने आदर प्रदर्शित करते हुए खड़े होकर कहा, "कहिए, कहिए, मुझे क्यों न बुला लिया!"

"आप यों न जाने पाएँगे। बिटिया मेरे घर से सूनी न जाएगी।"

"आप बड़ी उदार हैं, कभी भी आपका यह अनुग्रह नहीं भूलूँगा। पर अभी तो हमें जाने ही दीजिए। डाक्टर साहब ने जो प्रस्ताव उपस्थित किया है, उस पर हमें नए सिरे से विचार करना होगा। विचार-परामर्श करके मैं आपको लिखूगा। अभी ऐसी जल्दी क्या है? फिर आपको भी भलीभाँति सब बातों पर विचार कर लेना चाहिए। इन मामलों में जल्दी करने से धोखा ही होता है।" इतना कहकर रायसाहब ने माया को लक्ष्य करके कहा, "जल्दी करो, बेटी, गाड़ी का समय हो गया है।"

रायसाहब के स्वर में एक ऐसी दृढ़ता थी कि फिर अरुणादेवी को कुछ कहने का साहस ही न हुआ। फिर वह बेटे की माँ थी। बेटी के बाप के इस उत्तर से उसके अहंकार पर