पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/८४

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वस्तुएँ बाज़ार में बेचना सभी काम महन्तजी करते थे। जेल के कैदियों के वे आधारभूत पुरुष थे। कहना चाहिए-वे कैदियों के कल्पवृक्ष थे। कैदियों को अधिक से अधिक आराम पहुँचाना उनका धन्धा था। उन्हें एक स्वतन्त्र कोठरी रहने को दी हुई थी। वह कोठरी सर्वसिद्धि की दाता थी। महन्तजी ने कोठरी में एक गुप्त गढ़ा खोद रखा था। उस गढ़े में एक बड़ा-सा बक्स ज़मींदोज़ रखा था। यह बात नहीं कि उस बक्स का जेल-अधिकारियों को पता ही न हो। जानते सब कोई सब कुछ थे परन्तु न जानने का ही ढोंग रचते थे। उस बक्स में सब कुछ समाया था। जो कैदी जिस वस्तु की इच्छा करता, वही उसे उस खज़ाने से प्राप्त होती थी। अफीम और चण्डू से लेकर तेल- फुलेल, बीड़ी-सिगरेट तक सभी वस्तुएँ महन्तजी प्रसन्न होने पर कैदियों को देते रहते थे। इससे कैदी जेल में महन्तजी को अपना परम हितकर्ता और सहायक मानते थे। गलती और अपराध करने पर भी कैदी महन्तजी की शरण जाकर दण्ड से बचे रहते थे। त्योहार-पर्व पर मिठाइयाँ-पकवान सभी कैदियों को उनकी बदौलत मिल जाते थे। महन्तजी का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था। सफेद उज्ज्वल नाभि तक लटकती दाढ़ी, भरा हुआ शरीर, खूब लम्बा-चौड़ा कद, बड़ी-बड़ी जटाएँ, भगवा वस्त्र। आँखों में निर्भयता और प्रेम, होंठों पर हँसी। वाणी में व्यंग्य और कण्ठ में माधुर्य। संगीत के उस्ताद। मार्मिक कवि। सैकड़ों कथाओं के जानकार। ऐसे ही महन्त गिरिराजपुरी थे। उनके मुँह से मीठी गालियाँ खाकर जेलर और कैदी दोनों ही हँस पड़ते थे। महन्तजी जिसे गालियाँ दे देते उनका काम सिद्ध हुआ माना जाता था। सन् '42 के भभ्भड़ में शिशिर जैसे न जाने कितने दुधमुंहे बालक जेल में आ गए थे। उन सब पर महन्तजी की दृष्टि और संरक्षण था। ये सब कच्ची बुद्धि के लड़के ज़रा-ज़रा-सी बात पर जेल का नियम भंग करके कड़ी सज़ाएँ पाते थे, पर महन्त इनकी रक्षा करनेवाली ढाल बन जाते थे। शिशिर के जेल में पहुँचते ही महन्तजी की नज़र उस पर पड़ गई। शिशिर अनुभवहीन बालक था। जाते ही उसने जोश में आकर कुछ ऐसी गड़बड़ की कि उसे बेंतों की सज़ा दे दी गई। पर ज्योंही महन्तजी को मालूम हुआ, वे उसे उठाकर अपनी कोठरी में ले गए और बेंतों की सज़ा से उसे बचा लिया। दिल्ली जेल में इस समय बहुत भीड़-भाड़ हो गई थी। यह सब भीड़ कुछ ऐसी बेकसी, बेतुकी थी कि जेल अधिकारी भी उस पर ज़्यादती करते घबराते थे। फिर बाहर चारों ओर से भयंकर समाचार आ रहे थे। तोड़-फोड़ और दमन दोनों ही धूमधाम से चलते जा रहे थे। एक दिन डाक्टर और अरुणादेवी जेल में शिशिर से मुलाकात के लिए आए। शिशिर ने एक चिट्ठी माता अरुणादेवी को देने की चेष्टा की परन्तु वह जेल अधिकारी ने छीन ली। दोनों में काफी हाथापाई और लिपटा-लिपटी हुई। मुलाकात तुरन्त बन्द कर दी गई, और शिशिर को जेल सुपरिटेंडेंट के सामने पेश किया गया। सुपिरिटेंडेंट ने कहा, “क्या कारण है कि तुम्हारी सब सुविधाएं न छीन ली जाएँ, और तुम्हें काल-कोठरी की सज़ा न दी जाए?" “मैंने तो आपसे सुविधाओं को देने तथा कालकोठरी में न भेजने का अनुरोध नहीं किया।" "लेकिन तुम जेल के नियमों को क्यों तोड़ते हो?"