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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/८५

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"वह तो मेरा पेशा ही है। मैं जो चाहूँगा वह करूँगा और आप जो चाहें वह कीजिए।"

परन्तु इसी समय महन्तजी वहाँ आ उपस्थित हुए। उन्होंने सुपरिटेंडेंट को कुछ झिड़कते हुए कहा, 'साहब, आप भी क्या दुधमुँहे बच्चों के मुँह लगते हैं। चार दिन की हवा है, खत्म हो जाएगी। नाहक आप जेल में झगड़े खड़े करने के कारण पैदा कर रहे हैं। जाइए, मैं ज़िम्मा लेता हूँ, यह लड़का अब कोई काम जेल के नियम के विरुद्ध न करेगा।"

और वे शिशिर का हाथ पकड़कर खींचते हुए ले गए। ऐसा ही प्रभाव महन्तजी का दिल्ली जेल में था।

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यद्यपि देश के चोटी के नेता इस समय जेलों में बन्द थे, फिर भी देश में जो इतनी बड़ी क्रान्ति हो गई उसका एक मूल कारण था। इस समय दो व्यक्तियों का प्रभाव देश पर था। एक जवाहरलाल नेहरू, दूसरे सुभाषचन्द्र बोस। जवाहरलाल जेल में थे और सुभाष देश से बाहर। परन्तु दोनों ही के कार्य-कलाप हवा में तैरते हुए आते और लाखों-करोड़ों तरुणों को एक मूक सन्देश दे जाते थे। ये दोनों ही नेता जैसे देश की तरुण-मण्डली की भावना में अशरीरी होकर व्याप्त हो गए थे।

सुभाष बाबू उग्रतम दल के एकनिष्ठ नेता थे। इस सम्बन्ध में दूसरी बात नहीं कही जा सकती थी। जवाहरलाल भी देश-विदेश में उग्रवादी कहे जाते थे। स्पष्ट ही वे साम्राज्य-विरोधी तो थे ही, समाजवादी विचारधारा भी उनके हृदय में प्रवाहित हो रही थी। कहना चाहिए कि जवाहरलाल गाँधीजी के अहिंसा-सिद्धान्त को नीति के रूप में मानते थे, सिद्धान्त के रूप में नहीं। उनमें उत्साह था, जोश था, तेज था और क्रियाशीलता थी। देश के युवकों पर उनका प्रभाव था। जब वे बोलने खड़े होते थे, तो ऐसा प्रतीत होता था मानो एक सेनापति अपने सैनिकों को उनके कर्त्तव्य-पालन की शिक्षा दे रहा है।

पर सुभाष की बातें लच्छेदार नहीं होती थीं। वे तो सीधी चोट करते थे। आदर्श उनका भी समाजवादी था। क्रियाशील भी वे नेहरू से किसी हालत में कम न थे। परन्तु उनका अपना व्यक्तित्व था और उनकी अपनी आकर्षण-शक्ति बड़ी विचित्र थी।

फिर भी इन दोनों नेताओं में एक गहरा अन्तर था। देश के प्रति और अपनी सेना के प्रति किसी सेनापति का कत्र्तव्य होता है कि वह व्यक्तियों के प्रभाव से परे रहे। परन्तु जवाहरलाल कांग्रेस के अनुशासन और गाँधीजी के नेतृत्व के आगे सदैव सिर झुकाते रहे। यहाँ तक कि कभी-कभी उन्होंने अनुशासन के नाम पर अपने सिद्धान्तों तक की बलि दे दी। सन् 1936 में जब लखनऊ में कांग्रेस के वे अध्यक्ष थे, तब अध्यक्ष-पद से कांग्रेस के द्वारा पदग्रहण करने का उन्होंने तीव्र विरोध किया। साथ ही किसानों के पृथक् संघटनों पर ज़ोर ही नहीं दिया बल्कि यहाँ तक कहा था कि श्रेणी-संस्थाओं को कांग्रेस में सामूहिक प्रतिनिधित्व देना चाहिए। वे उन दिनों अपने भाषणों में समाजवादी सिद्धान्तों का प्रचार करते थे और मन्त्रिमण्डल बनाने के विचारों का मज़ाक उड़ाया करते थे। परन्तु जब सन्