पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९०

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"सब बातें लिखी थीं। तुम रात को तारों में 'भाभी' को देखते रहते हो, यह भी लिख दिया था। कभी हँसते नहीं हो, यह भी लिखा था-मैंने भाभी को जल्द आने को लिखा था।" “क्यों लिखा था तूने?” “ठीक लिखा था। अब तुम जाओ भैया, झट भाभी को लेकर आओ। मेरा मन उनसे मिलने को बहुत करता है।" दिलीप ने क्रोध करना चाहा, झिड़कना चाहा। “तूने ठीक नहीं किया,” कहना चाहा। पर यह सब उससे कुछ न हुआ। कुछ देर बाद उसने कहा, “अच्छा, अब तू जा।" "तो तुम कब जाओगे भैया?" "बस, अब जा ही रहा हूँ।” "तो मैं माँ से जाकर कहती हूँ!" यह कहती हुई करुणा भाग गई। चिट्ठी की उस पंक्ति को मुट्ठी में ज़ोर से भींचकर दिलीप एक अनिर्वचनीय सुख-समुद्र में डूब गया। 30 बहुत दिन बाद हुस्नबानू दिल्ली आई। रंगमहल बन्द पड़ा था। वह बेमरम्मत और वीरान हो गया था। हुस्नबानू ने बहुत-से मज़दूर लगाकर उसे साफ कराया। नौकर-चाकर कोई साथ न था, केवल एक बूढ़ी दासी थी, जो उसकी सर्वाधिक विश्वासपात्री और उसके दु:ख-दर्द की साथिन थी। इस दुखिया स्त्री की दुर्भाग्य-कहानी हमने कही ही नहीं। वह कही जाने के योग्य भी नहीं। अट्ठाईस वर्ष बाद हुस्न दिल्ली आई थी। जब वह नवविवाहित दुलहिन बनकर अपनी सब आशा, उत्साह, उमंग और असामान्य हृदय-धन गँवाकर, केवल चम्पक-कुसुम-सम कमनीय रूप-सुषमा लेकर, उस पागल, नपुंसक, कोढ़ी नवाब की पत्नी बन, तीन-तीन सौतों की विषदृष्टि की शिकार बन पतिगृह गई थी तो जैसे उसका कुसुम कोमल गात सन्ताप की ज्वाला से धू-धू जल रहा था। उसने अपने बड़े अब्बा के प्रति अतुल प्यार और सम्मान मन में रख, स्वेच्छा से, साहस से, धैर्य से और एक हद तक दबंगता से भी-अपने को जीवित ही चिता में झोंक दिया था, जहाँ वह जलती रही-अट्ठाईस वर्ष तक। और यद्यपि अब भी वह जल रही थी उसी चिता में, जबकि जीवन ही उसकी चिता बन गया था, तो भी इस अनोखी आग में जल-भुनकर वह राख न बनी थी, कोयला बनी थी-सफेद कोयला। एक अपरिसीम शीतलता ने जैसे उसके अन्तर्दाह को चारों ओर से लपेट लिया था। अब उसकी उम्र पचास को पार कर रही थी। कोढ़ी और नामर्द पति का सुहाग उसे केवल आठ वर्ष उपलब्ध हुआ। पति से प्रथम ही उसकी सौत और सखी ज़ीनत स्वर्ग सिधार गई थीं, जिसका उसे उस पति-गृह में एकमात्र सहारा था। बड़ी बेगम तो उससे पहले ही मर चुकी थी। रह गई थी तीसरी महल; नवाब के मरते ही वह एक प्रेमी के साथ अपने ज़ेवरात को लेकर भाग गई थी। उसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। बस नवाब के खानदान में अकेली रह गई थी बेगम हुस्नबानू-अपनी और पति की सारी स्टेट की स्वामिनी। रंग अब भी