पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९१

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नहीं आए?" उसका वैसा ही चम्पे की कली के समान गोरा था पर वह कुछ मोटी हो गई थी। माथे की सुन्दर अलकावलियाँ अब चाँदी-सोने के तार बन चुके थे। बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों के चारों ओर स्याही का एक बड़ा-सा घेरा बन गया था। नुकीली नाक और गोल ठोड़ी उसकी चरित्रता और धैर्य का परिचय देते थे। उसके होंठों में दृढ़ता और कोमलता का सम्मिश्रण था। आवाज़ उसकी जैसे दर्द से भरी हुई थी। वह बहुत धीमे बोलती थी। क्रोध करना, ज़ोर से बोलना, सख्त बात कहना जैसे उसने कभी सीखा ही नहीं था। उसकी दृष्टि में एक दार्शनिक भावना व्यक्त होती थी। उसके सम्मुख आकर बड़े से बड़े आदमी को अवनत होना पड़ता था। बूढ़ी दासी ने बेगम के पास आकर बड़बड़ाते हुए कहा, “मैंने कहा था बेगम कि दो- चार नौकर ले चलो, पर तुमने एक न सुनी। अल्लाह रखे, दर्जनों नौकर-चाकर हराम के टुकड़े तोड़ रहे हैं, जब यहाँ इतनी बड़ी हवेली जंगल हो रही है-मैं मरी बुड्डी-ठुड्डी कहाँ जाऊँ; क्या करूँ?" बेगम ने आहिस्ता से कहा, “बुआ, दिल्ली शहर है देहात नहीं। झल्लीवालों को बुला लो या मज़दूर लगा लो। वे सब सफाई कर डालेंगे; परेशान क्यों होती हो?" “पर किसे भेजूं? अब मैं मज़दूर लेने जाऊँ?" "चली जाओ ज़रा, बुआ। काम तो करना ही पड़ेगा। लेकिन रहमत मियाँ क्या अभी “कहाँ, वे आ जाते तो रोना क्या था, कुछ तो सहारा मिलता!" "हैं तो दिल्ली ही में?" “हैं तो।" “तो बुआ, रिक्शा ले लो; कूचा चेलान में वह जो नुक्कड़वाला मकान है, वहीं उनका घर है। एक बार चली जाओ। उनके आने से तुम्हें बहुत सहारा मिलेगा।" “रिक्शे पर तो बेगम मुझसे चढ़ा न जाएगा। दौड़ेगा मुआ हुड़दंग घोड़े की तरह। डोली-कहार दिल्ली से न जाने कहाँ गायब हो गए? कैसा ज़माना आ गया बेगम, इज़्ज़तवालियाँ तो अब ज़हर ही खाकर मर जाएँगी!" “रिक्शे पर भी पर्दा हो जाएगा, बुआ। जाओ, अभी चली जाओ।" बूढ़ी दासी बड़बड़ाती हुई चली गई। उस बड़े महल में रह गई अकेली हुस्नबान्। बालपन की स्मृतियाँ उसकी आँखों में एक-एक करके नाचने लगीं। यह रंगमहल जब बड़े अब्बा के ज़माने में नौकरों-चाकरों, मुगलानियों, उस्तानियों, उर्दू बेगमों से भरा रहता था- एक आता था, एक जाता था। बाहर दीवानखाने में दरबार लगता था-बड़े अब्बा का। दीवानजी सफेद दाढ़ी हिलाते बात-बात पर सलामें झुकाते थे और मैं उन्हें देख-देखकर हँसती थी। उनकी दाढ़ी के बाल गिनती थी, पूछती थी-दीवानजी, मेरी दाढ़ी कब निकलेगी? दीवानजी गोद में लेकर कहते-निकलेगी बेटी, जब तुम दुलहिन बनकर डोली में बैठोगी। दुलहिन बनना, डोली में बैठना-सभी कुछ तो हो गया। जीवन में जितने अरमान होते हैं, सभी का तो अब हिसाब बेबाक हो गया। अब तो न कोई अरमान रहा, न उनके पूरे होने की उम्मीद रही। जैसे बड़े अब्बा का यह रंगमहल सूना, उजाड़ और वीरान है, वैसा ही