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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९४

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वे धम से गाड़ी में जा बैठे। इस समय डाक्टर को ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो हवा में उड़े जा रहे हों।

संगमरमर की दिव्य प्रतिमा के समान भव्य श्रीधारिणी हुस्नबानू को ताज़ीम दी। बैठने पर हँसकर कहा, "इतनी मुद्दत के बाद, आखिर फिर मुलाकात हुई भाईजान, पहचानते तो हैं?"

डाक्टर का कंठ सूख गया। उन्होंने भर्राए कण्ठ से कहा :

"मुझे तो ऐसा मालूम होता है जैसे मैं सपना देख रहा हूँ।"

"मगर मैं तो हुस्नबानू हूँ।" बानू ने हँसकर कहा।

"शायद।"

इस बार बानू खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसने कहा, "शुक्र है, आपने आज मुझे हँसाया तो!"

"इसके क्या माने?"

"अब इतने दिन बाद बीती बातों के माने पूछकर क्या कीजिएगा?"

"लेकिन नवाब साहब की बाबत..."

"क्या अभी सुना?"

"कैसे सुनता, तुमने तो कभी लिखा ही नहीं।"

"लिख-लिखकर दिल में रखती रही। भेजा नहीं।"

डाक्टर ने देखा–मुस्कान जो बानू के होंठों पर फैल रही थी, वह सूखती जा रही है। उन्होंने कहा, "तुम्हारा इतना बड़ा दिल है, जो रखती गईं, समाता गया!"

"और आप भाईजान, लिख-लिखकर शायद फाड़कर फेंकते रहे!" बेगम फिर मुस्करा उठीं।

"लिख ही न सका।"

"यह क्यों? लिखने की चाह ही शायद न रही।"

"नहीं, ताब न रही।"

"खैर, अब सब खैराफियत है?"

"दुनिया कदम-कदम चल रही है, लेकिन मुझे कुछ पूछ लेने दो।"

"क्या?"

"नवाब की बाबत!"

"क्या कीजिएगा पूछकर?"

"सुना मुद्दत हुई वे न रहे; तुमने इसकी खबर भी न भेजी?"

"क्या करते खबर पाकर आप, शायद खत भेजकर मातमपुर्सी करते।"

डाक्टर की आँखें बहने लगीं। उन्होंने जवाब नहीं दिया। बानू ने कहा :

"अब यह क्या हिमाकत है भाईजान, बूढ़े हो गए आप।"

"कौन कहता है?" डाक्टर ने चमककर कहा, "साठ को ज़रूर पार कर गया हूँ–लेकिन हुस्न, मैं जब तुम्हें याद करता हूँ तो अपने को वैसा ही जवान पाता हूँ जैसा तब था, जब मैंने पहली नज़र सिर्फ तुम्हारी दो उँगलियाँ-भर देखी थीं।"

"याद रहीं वे उँगलियाँ?"