पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९३

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31 आखिरी मरीज़ को भुगताकर डाक्टर कुर्सी से उठे, इसी समय तक मोटर उनकी डिस्पेंसरी के सामने आकर रुकी। डाक्टर ने आँख उठाकर मोटर की ओर देखा और फिर घड़ी की ओर। एक बज रहा था और एक बूढ़ा मुसलमान धीरे-धीरे डिस्पेंसरी की सीढ़ियों पर चढ़ रहा था। डाक्टर को सहसा अट्ठाईस वर्ष पहले की घटना याद हो आई।... वही काला रेशमी बुरका, वही बूढ़ा नवाब, और चम्पे की कली के समान उज्ज्वल दो उँगलियाँ...जीवन में वे कभी भूली तो थी ही नहीं। स्मृतियों के बवंडर में दबी पड़ी रहती थीं-दिन-रात में हज़ार बार उभर आती थीं। आज इस क्षण जैसे वे मूर्त हो उठीं। वे खड़े होकर बूढ़े की ओर देखने लगे। बूढ़ा रहमत था। रहमत ने आकर झुककर सलाम किया। और कहा, “हुजूर, रंगमहल से मोटर आई है; बेगम ने आपको याद फरमाया है।" डाक्टर के हृदय की धड़कन जैसे एक क्षण के लिए बन्द हो गई। उसने काँपते कंठ से कहा, “रंगमहल? बेगम? कौन बेगम।" “हुजूर, हुस्नबानू बेगम।" “क्या वे दिल्ली में आई हैं?" “जी हाँ, हुजूर।" वर्ष बाद... " "कब?" “एक हफ्ता हो गया।" ...एक हफ्ता,” डाक्टर सोच रहे थे, “एक हफ्ते बाद बुलाया है! नहीं, नहीं, अट्ठाईस डाक्टर के मानस में एक भूचाल-सा आ गया। उन्होंने हकलाते हुए कहा : “क्या...क्या अभी चलना होगा?" “जी, हुक्म तो यही है।” "तुम्हारा नाम क्या है?" "रहमत है-हुजूर।” "तो रहमत मियाँ, बेगम के साथ और कौन है?" “वे अकेली हैं हुजूर।” "नवाब नहीं हैं?" "नवाब, कौन नवाब?" "बेगम के शौहर।" "उनका तो हुजूर, अब से बीस साल पहले ही इन्तकाल हो गया था!” “बीस साल पहले?" “जी हाँ।" डाक्टर क्षण-भर चुप रहे। विचारों की आँधी का एक झोंका उन्हें हिला गया। उन्होंने संभलकर कहा, “चलता हूँ रहमत।"