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पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/९८

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भाई-बहिन नहीं हैं। सबके विचार अलग हैं, पर आपस में प्रेम बहुत है। दिलीप तेजमिज़ाज है ज़रूर, पर अपनी माँ को बहुत प्यार करता है। और करुणा तो उसे बहुत मानती है। फिर, वह बड़ा ही आर्थोडाक्स है, यह सब सुनेगा तो उसकी छाती न फट जाएगी। न, मैं तो उससे यह सब न कह सकूँगा। वह कैसे बर्दाश्त करेगा। और उसके भाई, करुणा, दूसरे लोग? उसकी सारी दुनिया अँधरी हो जाएगी। वह संसार में अकेला रह जाएगा।"

"ऐसा तो मैं उसे न होने दूंगी। अकेला रह जाना दुनिया में कैसा होता है, यह मैं जानती हूँ। लेकिन भाईजान, यह क्या बिलकुल ही नामुमकिन है कि आप ही अब इस बात को कतई भूल जाएँ कि वह आपका बेटा नहीं है।"

"मैंने तो कभी यह सोचा ही नहीं, पर दूसरों को धोखा देने में जी काँपता है।"

"धोखा..." बानू के होंठ काँपकर रह गए। वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी, पर कह न सकी।

डाक्टर ने साहस करके कहा–"इसी से तो कहता था, तुम उसे एक बार मिल लेतीं तो..."

"यह तो हो नहीं सकता, भाईजान! आप भी तो सोचिए, वह क्या बर्दाश्त कर सकेगा?"

"न, नहीं कर सकेगा।"

"तो वह जैसा है रहने दीजिए। अपने बच्चों की शादी कर लीजिए।"

"यह भी नहीं हो सकता बानू, ऐसा ही होगा तो मैं वही करूँगा जो तुमने कहा। जो हो वह हो, लेकिन तुम उसकी माँ से तो मिल लो।"

"उन्हें यहीं भेज दीजिए भाईजान, और एक बात का ध्यान रखिए, आपकी यह बहिन बहुत दुखिया है, और अब उसे दुनिया में खुदा बाद सिर्फ आपका ही आसरा है। उसी आसरे से मैं यहाँ आई हूँ–आपने मेरी इज़्ज़त बचाई है, अब आप मेरे दर्द को जितनी राहत पहुँचा सकेंगे, आपको सवाब होगा। खुदा के लिए आप अब यही समझ लिजिए—वह आप ही का बेटा है।"

इतना कहकर बानू ने जिन करुणा-भरे नयनों से उन्हें देखा–उस दृष्टि से विचलित होकर डाक्टर ने कहा :

"मेरी कमज़ोरी को माफ करना बानू, तुम्हारी बात ही ठीक है। दिलीप आज से मेरा ही बेटा है। मेरे मन की दुविधा दूर हो गई। अब कहो–तुम्हारे लिए और क्या करूँ?"

"बस, कभी-कभी मिलते रहें।"

"अब रहोगी तो दिल्ली ही में?"

"हाँ, यहीं रहूँगी।"

"अरुणा से क्या कहूँ?"

"कहना–दिलीप की माँ को बानू याद कर रही है। दर्शन दे जाएँ, आँखें तरस रही हैं।"

"कह दूंगा, लेकिन हिसाब नहीं समझेंगी आप?"

"कैसा हिसाब?"

"अपनी जायदाद का।"

"मेरी कौन सी जायदाद है?"