था। यहाँ उसने बौद्धों और हिन्दुओं को बराबर पाया। यहाँ १०० संघाराम और १० हज़ार भिक्षु तथा २०० देव मन्दिर और उसके कई हज़ार पुजारी उसने देखे थे। यहाँ के प्रतापी बौद्ध राजा शिलादित्य द्वितीय से वह मिला था। जिसने गंगा के पूर्वी किनारे पर १०० फीट ऊँचे स्तम्भ पर एक पूरे कद की सोने की बुद्धमूर्ति स्थापित की थी।
वह लिखता है—
"बसन्त ऋतु के तीन मास तक वह भिक्षुओं और ब्राह्मणों को भोजन देता था, संघाराम से महल तक का सब स्थान तम्बुओं और गवैयों के ख़ीमों से भर जाता था। बुद्ध की एक छोटी सी मूर्ति एक अत्यन्त सजे हुये हाथी पर रखी जाती थी और शिलादित्य इन्द्र की भाँति सजा हुआ उस मूर्ति की बाईं ओर और कामरूप का राजा दाहिनी ओर ५|५ सौ युद्ध के हाथियों की रक्षा में चलता था। राजा चारों ओर मोती, सोने चान्दी के फूल एवं अनेक बहुमूल्य चीज़ें फेंकता जाता था। मूर्ति को स्नान कराया जाता। और शिलादित्य उसे स्वयं कन्धे पर रखकर पच्छिम के बुर्ज पर ले जाता था। और उसे रेशमी वस्त्र तथा रत्न जटित भूषण पहनाता था। फिर भोजन और शास्त्र चर्चा होती थी।"
इन सब उदाहरणों से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि हिन्दुओं ने मूर्ति पूजा ही नहीं उत्सव और त्यौहारों का मनाना भी बौद्धों से सीख लिया था। इस यात्री ने अयोध्या में भी