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पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१५४

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भोग तनख़ाह के तौर पर काम करने वालों को बांटा जाता है जो उसे घर २ बेच देते हैं।

अन्य मन्दिरों की भी यही दशा है और उन के पुजारियों को वह सब आमदनी स्वेच्छा से ख़र्च करने का पूरा अधिकार है। सब लोग जानते हैं कि ये पुजारी प्रायः मूर्ख, शराबी, लम्पट, व्यभिचारी और नीच प्रकृति होते हैं। पत्थर पूजने का जड़ काम कोई भी बुद्धिमान नहीं कर सकता। ईश्वर ही जान सकता है कैसे इस महामूर्खता के विचार हिन्दुओं के दिमाग़ों से दूर होंगे।

पण्डे पुजारियों के बाद पाखण्डियों में दूसरा नम्बर साधु महात्माओं का है। भारतवर्ष में इस समय ५२ लाख मुसण्डे साधु हैं। जिनका पेशा गृहस्थों की गाढ़ी कमाई को हरण करना। खाना पीना मौज उड़ाना और गृहस्थ की स्त्रियों में व्यभिचार फैलाना है। ये लोग धेले का गेरू और एक पैसा सिर मुड़ाई का देकर एकदम महात्मा बन जाते हैं। इनके अनेक पन्थ और अखाड़े हैं। दादूपन्थी, रामसनेही, कबीर पन्थी, निरंजनी, उदासी, नागर नाथ, आदि न जाने क्या क्या। इनके बड़े बड़े मठ और गुरद्वारे हैं। और उसमें लाखों की सम्पत्ति है। ये लोग जाट, माली, गूजर, बिसनोई, कुरमी आदि किसान पेशा लोगों से चेला मूंडते हैं। यहाँ आलसी, निकम्मे लड़के मेहनत से बचने के लिए आसानी से मिल जाते हैं। साहूकार के क़र्ज़े से भी बच जाते हैं। ये लोग दिन भर राम नाम भजने या माला फेरने का ढोंग किया