पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

 

दूसरा अध्याय

सदुपयोग और दुरुपयोग

मेरा कहना यह है कि हिंसा कोई पाप नही है और अहिंसा कोई धर्म नहीं है। इन दोनों वस्तुओं का सदुपयोग धर्म और दुरुपयोग पाप है। एक जज अपराधी को फाँसी की आज्ञा देता है, अपराधी ने उस का कुछ नहीं बिगाड़ा, अपराधी से वह परिचित भी नहीं है, अपराधी पर वह क्रुद्ध भी नहीं। वह न्याय और शान्ति के अधिपत्य के पद पर बैठा है, वह बहुत गम्भीरता और विवेचन में यह देखता है कि अपराधी सार्वजनिक शान्ति के लिये वर्तमान समाज के नियमों के आधार पर विघ्न करता है या नहीं और जब वह ऐसा पाता है तो अपने उन बंधे हुए अधिकारों के आधार पर, जो उसे उस पद के कारण प्राप्त हैं, अपराधी को मृत्यु तक फाँसी पर लटकने तक की आज्ञा देता है। समय पर जेल अधिकारी और जल्लाद उसे फाँसी देकर मार