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पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/२८

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कर बाकी का आधा शरीर भी स्वर्ण बना लूं। इसी इरादे से आया था, परन्तु यहां तो ढाक के तीन ही पत्ते दीखे, नाम ही था। मेरा इतने दूर का प्रवास व्यर्थ ही हुआ। मेरा शरीर तो वैसा ही रहा।

बात सुनकर युधिष्ठिर सन्न होगये। उन्होंने उत्सुकता से पूछा कि भाई, वह कौन सा महान् राजा था जिसने भारी यज्ञ किया था। दया कर उसका आख्यान सुनाकर हमारे कौतूहल को दूर करो।

नवले ने शान्त वाणी से कहना शुरू किया—"एक बार देश में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा, बारह वर्ष तक वर्षा न हुई। पशु पक्षी सब मर गये। वृक्ष वनस्पति सब जलकर राख होगई। मनुष्यों के नर कंकालों के ढेर लग गये। वृक्षों की पत्ती, जड़ और छाल तक लोग खा गये। मनुष्य मनुष्य को खाने लगा। ऐसे समय में एक छोटे से ग्राम में एक दरिद्र ब्राह्मण परिवार रहता था। उसमें चार आदमी थे। एक ब्राह्मण, दूसरी उसकी स्त्री, तीसरा उस का पुत्र और चौथी पुत्र बधू। इस धर्मात्मा का यह नित्य नियम था कि भोजन से पूर्व वह किसी भी अतिथि को पुकारता था कि कोई भूखा हो तो भोजन करले। यह नियम इसने इन दुर्दिनों में भी अखण्ड रक्खा। भूख के मारे चारों अधमरे हो गये थे। सप्ताह में एकाध बार कुछ मिलता, पर नियम से ब्राह्मण किसी अतिथि को पुकारता। इस काल में अतिथि की क्या कमी थी? कोई न कोई आकर उसका आहार खा जाता था। एक दिन पन्द्रह दिनके पीछे कुछ