योग्य थे। दशरथ जी की आज्ञा अनुचित थी, लोग कहते हैं कि उन्होंने केकई को वर दिया था, वे वचन बद्ध थे। मैं कहता हूँ उन्होंने श्रीराम को वचन दिया कि तुम्हारा राजतिलक होगा और वे केकई की अपेक्षा श्रीराम के प्रति अधिक वचन बद्ध थे। फिर श्रीराम का राज्यारोहण अत्यन्त सुखद, उत्तम, न्यायनीतियुक्त और उचित था। यदि दो वचनों का बराबरी का ही संघर्ष था तो उन्हें राम को दिये वचन को ही पालन करना चाहिये था। मैं कह सकता हूँ कि यह झूठ बात है कि दशरथ ने केवल प्रण के कारण ही राम को वनोवास जाने दिया। वास्तव में असल बात तो यह थी कि वे परले दर्जे के स्त्रैण और दुर्बल हृदय राजा थे। जैसे कि आज भी स्त्रियों के गुलाम बूढ़े रईस देख पड़ते हैं जो पुत्रों पर अत्याचार करते हैं। राम एक असाधारण धैर्यमय महापुरुष थे, इसलिये उन्होंने वन में भी चाहे जितने कष्ट भोगे—पर यश का ही सञ्चय किया, परन्तु यदि इतिहास को खोज कर देखा जाय तो दशरथ जैसे स्त्रियों के दास राजाओं की कमी नहीं। पूर्णमल को ऐसे हो पतित पिता ने स्त्री के वशीभूत होकर हाथ पाँव कटवा कर कुएं में डलवाया था। अशोक जैसे प्रिय दर्शी ने अपने पुत्र कुण्डाल को ऐसी ही स्त्री की दासता करके आँखे निकाल ली थीं। ऐसे स्त्रैण पुरुषों के बहुत उदाहरण हैं। दशरथ ने न तो अपने राज्य के अधिपति होने के उत्तर दायित्व पर विचार किया और न पिता के उत्तर दायित्व पर। उसने न केवल राम पर, प्रत्युत अपनी ज्येष्ठा पत्नी कौशिल्या पर भी घोर
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